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कविता

आ गए फिर लो मछेरे

राधेश्याम बंधु


आ गए फिर
लो मछेरे, शब्द का ले जाल
कौन पूछे,
थकी-प्यासी, मछलियों का हाल ?

          इस सदी की नदी में भी
          अब नहीं पानी,
          चीख  वाले  मौसमी
          नाले भी बेमानी ।
          दाँव दलदल में  फँसी,
 हर  जिंदगी  बेहाल ।

          श्वेत बगुलों का लगा  है
          झील पर पहरा,
          कहाँ  राहत  योजना  का
          नीर है ठहरा ?
          पनघटों के कंठ सूखे,
हाँफते  हैं  ताल ।

           
बिना  चारा  भी  हमें
जालों में फँसना है,
मौन सीपी- शंख सा
हाटों में बिकना है ।

कौन तोड़ेगा
लुटेरे  घाट  की  हर चाल ?
आ गए फिर
लो  मछेरे, शब्द का ले जाल ?


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