आ गए फिर
लो मछेरे, शब्द का ले जाल
कौन पूछे,
थकी-प्यासी, मछलियों का हाल ?
इस सदी की नदी में भी
अब नहीं पानी,
चीख वाले मौसमी
नाले भी बेमानी ।
दाँव दलदल में फँसी,
हर जिंदगी बेहाल ।
श्वेत बगुलों का लगा है
झील पर पहरा,
कहाँ राहत योजना का
नीर है ठहरा ?
पनघटों के कंठ सूखे,
हाँफते हैं ताल ।
बिना चारा भी हमें
जालों में फँसना है,
मौन सीपी- शंख सा
हाटों में बिकना है ।
कौन तोड़ेगा
लुटेरे घाट की हर चाल ?
आ गए फिर
लो मछेरे, शब्द का ले जाल ?