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कविता

यात्राएँ

योगेंद्र वर्मा व्योम


कुछ यात्राएँ बाहर हैं, कुछ
मन के भीतर हैं

यात्राएँ तो सब अनंत हैं
बस पड़ाव ही हैं
राह सुगम हो, पथरीली हो
बस तनाव ही हैं
किंतु नई आशाओं वाले
ताजे अवसर हैं

कभी यहाँ हैं, कभी वहाँ हैं
और कभी ठहरे
तन-मन दोनों रहे मुसाफिर
लाख रहे पहरे
शंकाओं-आशंकाओं में भी
उजले स्वर हैं

थकन मिले या मिले ताजगी
कहते कभी नहीं
चिंताएँ हों या खुशियाँ हों
बहते कभी नहीं
किसी दुधमुँहे बच्चे की ज्यों
किलकारी-भर हैं


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