बिकाऊ
	     खोयी आँखें लौटीं :
	     धरी मिट्टी का लोंदा
	     रचने लगा कुम्हार खिलौने।
	     मूर्ति पहली यह
	     कितनी सुन्दर! और दूसरी-
	     अरे रूपदर्शी! यह क्या है-
	     यह विरूप विद्रूप डरौना?
	     ‘‘मूर्तियाँ ही हैं दोनों,
	     दोनों रूप : जगह दोनों की बनी हुई है।
	     मेले में दोनों जावेंगी।
	     यह भी बिकाऊ है,
	     वह भी बिकाऊ है।
	     ‘‘टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ
	     यह नहीं है
	     वह भी नहीं है,
	     मगर टिकाऊ तो
	     मैं भी नहीं हूँ-
	     तुम भी नहीं हो।’’
	     रुका वह एक क्षण
	     आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,
	     फिर बोला वह :
	     ‘‘होती बड़े दुःख की कहानी यह
	     अन्त में अगर मैं
	     यह भी न कह सकता, कि
	     टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं
	     (और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?)
	     वह भी नहीं है :
	     बल्कि वही तो
	     असली बिकाऊ है।’’
	तोक्यो, जापान
	24 अप्रैल, 1957
	               हे अमिताभ
	     हे अमिताभ!
	     नभ पूरित आलोक,
	     सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक :
	     हे अवलोकित
	     हे हिरण्यनाभ!
	क्योतो, जापान
	6 सितम्बर, 1957
	               धरा-व्योम
	     अंकुरित धरा से क्षमा
	     व्योम से झरी रुपहली करुणा।
	     सरि, सागर, सोते-निर्झर-सा
	     उमड़े जीवन : कहीं नहीं है मरना।
	नारा, जापान
	6 सितम्बर, 1957
	               नदी-तट : एक चित्र
	     नदी की बाँक
	     गोरी चमक बालू की
	     विदा की आर्द्र लालिम
	     मेघ की रेखा : नीरव बलाका
	नारा, जापान
	6 सितम्बर, 1957
	                 दीप पत्थर का
	     दीप पत्थर का
	     लजीली किरण की
	     पद-चाप नीरव :
	     अरी ओ करुणा प्रभामय!
	     कब? कब?
	क्योतो, जापान
	9 सितम्बर, 1957
	                 एक चित्र
	     मेघ में खोयी छाया :
	     पर्वत। 
	     झुकी डाल से झरा
	     ओस-सा लघु स्वर :
	     पंछी।
	     मनःक्षितिज पर उदित
	     शान्त करुणा कल्याणी :
	     छवि।
	     नमित मुदित नीरव
	     कवि।
	नारा-क्योतो
	9 सितम्बर, 1957
	               अंगूर-बेल
	     उलझती बाँह-सी
	     दुबली लता अंगूर की।
	     क्षितिज धुँधला।
	     तीर-सी यह याद
	     कितनी दूर की।
	क्योतो
	9 सितम्बर, 1957
	               क्या हमीं रहे
	     रूप रूप रूप
	     हम पिघले विवश बहे।
	     तब उस ने जो सब रिक्तों में भरा हुआ है
	     अपने भेद कहे
	     सत्य अनावृत के वे
	     जिस ने वार सहे,
	     क्या हमीं रहे
	क्योतो
	10 सितम्बर, 1957
	               प्यार : अव्यक्त
	     रात-भर घेर-घेर
	     छाते आते रहे बादर,
	     मेरे सोते
	     बरसती रही बरसात,
	     झरते रहे पात
	     बनाते-से चादर-गलीचा,
	     प्रात तक नीचे दब
	     खो गया सोता।
	     यों चुक गयी जाने कब
	     अनकही सब बात।
	क्योतो
	10 सितम्बर, 1957
	              सोन-मछली
	     हम निहारते रूप,
	     काँच के पीछे
	     हाँप रही है मछली।
	     रूप-तृषा भी
	     (और काँच के पीछे)
	     है जिजीविषा
	क्योतो
	10 सितम्बर, 1957
	               खिड़की एकाएक खुली
	     खिड़की एकाएक खुली,
	     बुझ गया दीप झोंके से,
	     हो गया बन्द वह ग्रन्थ
	     जिसे हम रात-रात
	     घोखते रहे,
	     पर खुला क्षितिज, पौ फटी,
	     प्रात निकला सूरज, जो सारे
	     अन्धकार को सोख गया।
	     धरती प्रकाश-आप्लावित!
	     हम मुक्त-कंठ मुक्त-हृदय
	     मुग्ध गा उठे
	     बिना मौन को भंग किये।
	     कौन हम?
	     उसी सूर्य के दूत
	     अनवरत धावित।
	क्योतो
	11 सितम्बर, 1957
	               प्यार : व्यक्त
	     रात मोम-सी बेबस ढलती रही
	     आस बाती-सी जलती रही;
	     भोर में सपना :
	     दूर कितना भी सही
	     तू है अपना।
	क्योतो
	12 सितम्बर, 1957
	               मैं देख रहा हूँ
	     मैं देख रहा हूँ
	     झरी फूल से पुंखरी
	     -मैं देख रहा हूँ अपने को ही झरते
	     मैं चुप हूँ :
	     वह मेरे भीतर वसन्त गाता है।
	तोक्यो
	15 सितम्बर, 1957
	
	               साधना का सत्य
	     यह जो दिया लिये तुम चले खोजने सत्य, बताओ
	     क्या प्रबन्ध कर चले
	     कि जिस बाती का तुम्हें भरोसा
	     वही जलेगी सदा
	     अकम्पित, उज्ज्वल एकरूप, निर्धूम?
	तोक्यो
	15 सितम्बर, 1957
	               वह क्या लक्ष्य
	     वह क्या लक्ष्य
	     जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष
	     बताने की, क्या पाया?
	     वह कैसा पथ-दर्शक
	     जो सारा पथ देख
	     स्वयं फिर आया
	     और साथ में-आत्म-तोष से भरा-
	     मान-चित्र लाया!
	     और वह कैसा राही
	     कहे कि हाँ, ठहरो, चलता हूँ
	     इस दोपहरी में भी, पर इतना बतला दो
	     कितना पैंडा मार
	     मिलेगी पहली छाया?
	तोक्यो
	15 सितम्बर, 1957
	               द्वारहीन द्वार
	     द्वार के आगे
	     और द्वार : यह नहीं कि कुछ अवश्य
	     है उन के पार-किन्तु हर बार
	     मिलेगा आलोक, झरेगी रस-धार।
	क्योतो
	15 दिसम्बर, 1957
	               घाट-घाट का पानी
	     होने और न होने की सीमा-रेखा पर सदा बने रहने का
	     असिधारा-व्रत जिस ने ठाना-सहज ठन गया जिस से-
	     वही जिया। पा गया अर्थ।
	     बार-बार जो जिये-मरे
	     यह नहीं कि वे सब
	     बार-बार तरवार-घाट पर
	     पीते रहे नये अर्थों का पानी।
	     अर्थ एक है : मिलता है तो एक बार : (गुड़-सा गूँगे को!)
	     और उसे दोहराना
	     दोहरे भ्रम में बह जाना है।
	तोक्यो
	16 सितम्बर, 1957
	               आँखें-1
	     दूर से पास बुलातीं
	     पर समीप आतीं तो आँखें लातीं
	     कितनी-कितनी दूरियाँ।
	     जीवन के हर आमन्त्रण में भरी हुई हैं
	     उफ़! कितनी मजबूरियाँ!
	तोक्यो
	17 सितम्बर, 1957
	              आँखें-2
	     जब पुकारती थीं तब उन में
	     कितनी हल्की दिखती थीं
	     अलसायी परछाइयाँ,
	     आयीं निकट : उन्हीं आँखों में
	     डूब गयीं गहराइयाँ
	तोक्यो
	17 सितम्बर, 1957
	               घनी धुन्ध से छाया
	     घनी धुन्ध से छाया निकली
	     क्षण भर में फिर
	     घनी धुन्ध में चली गयी।
	     उस क्षण में मुझ को आलोक मिला,
	     रस मिला, चिरन्तन दृष्टि मिली।
	
	तोक्यो
	17 सितम्बर, 1957
	                पूनो की साँझ
	पति-सेवारत साँझ
	उचकता देख पराया चाँद
	लला कर ओट हो गयी।
	जापान
	सितम्बर, 1957
	               रात में गाँव
	     झींगुरों की लोरियाँ
	     सुला गयी थीं गाँव को,
	     झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं
	     धीमे-धीमे उजली कपासी धूम-डोरियाँ।
	तोक्यो, जापान
	18 सितम्बर, 1957
	               पहाड़ी यात्रा
	     मेरे घोड़े की टाप चौखटा जड़ती जाती है
	     आगे के नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आस-पास :
	     मैं एक चित्र में लिखा गया-सा आगे बढ़ता जाता हूँ।
	जापान
	सितम्बर, 1957
	               सागर में ऊब-डूब
	     सागर में ऊब-डूब करती खाली बोतल
	     जाने किस के कब के (और कहाँ पर)
	     घड़ी-दो घड़ी सुख की साक्षी :
	     और यह सागर : जिसे नहीं है
	     देश-काल का ओर-छोर-
	     नहीं है रूपाकार।
	तोक्यो-कामाकुरा
	22 सितम्बर, 1957
	               सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान1
	     हे महाबुद्ध!
	     मैं मन्दिर में आयी हूँ
	     रीते हाथ : फूल मैं ला न सकी।
	     औरों का संग्रह तेरे योग्य न होता।
	     जो मुझे सुनाती
	     जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत-
	     खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ
	     तेरी करुणा बुनती रहती है
	     भव के सपनों, क्षण के आनन्दों के
	     रहःसूत्र अविराम-उस भोली मुग्धा को
	     कँपती डाली से विलगा न सकी।
	     जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,
	     जो फूल जहाँ है, जो भी सुख
	     जिस भी डाली पर हुआ पल्लवित, पुलकित,
	     मैं उसे वहीं पर अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
	     हे महाबुद्ध! अर्पित करती हूँ तुझे।
	     वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का,
	     वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा
	     अपने सुन्दर आनन्द-निमिष का,
	     तेरा हो, हे विगतागत के वर्तमान के, पद्मकोश!
	     हे महाबुद्ध!
	तोक्यो, जापान
	25 सितम्बर, 1957
	[1]जापान की सम्राज्ञी कोमियो प्राचीन राजधानी नारा के बुद्ध-मन्दिर में जाते समय असमंजस में पड़ गयी थी कि चढ़ाने को क्या ले जाए और फिर रीते हाथ गयी थी। यही घटना कविता का आधार है।
	               दाता और भिखारी
	     फूल खिलते रहे चुपचाप : मंजरी आयी
	     दबे पाँव, सकुचाती।
	     किन्तु मधु-मक्खियाँ, भौंरे
	     तड़फड़ाते रहे, करते रोर;
	     मुँह चिढ़ाते रहे वन की शान्ति को
	     अविराम अनगिन झींकते झींगुर।
	     भिखारी सब बजाते गाल, बगलें,
	     फाड़ते आकाश : सकुचता, सहमता, चुपचाप
	     पथ से गुजरता दाता।
	तोक्यो, जापान
	27 सितम्बर, 1957
	               एक हवा-सी बार-बार
	     जैसे अनाथ शिशु की अरथी को
	     ले जाते हैं लोग : उठाये गोद, मगर
	     तीखी पीड़ा के बोध बिना,
	     वैसे ही एक हवा-सी बार-बार
	     ढोती स्मृतियों का भार
	     थकी-सी मुझ में हो कर बह जाती है।
	तोक्यो, जापान
	27 सितम्बर, 1957
	               चुप-चाप
	     चुप-चाप चुप-चाप
	     झरने का स्वर
	     हम में भर जाए,
	     चुप-चाप चुप-चाप
	     शरद की चाँदनी
	     झील की लहरों पर तिर आए,
	     चुप-चाप चुप-चाप
	     जीवन का रहस्य,
	     जो कहा न जाय, हमारी
	     ठहरी आँखों में गहराए,
	     चुप-चाप चुप-चाप
	     हम पुलकित विराट् में डूबें
	     पर विराट् हम में मिल जाए-
	     चुप-चाप चुप-चाप...
	चुज़ेनजी, निक्को (जापान)
	शरत्पूर्णिमा : 10 अक्टूबर, 1957
	               रात कटी
	     किसी तरह रात कटी
	     पौ फटी मायाविनी छायाओं की
	     काली नीरन्ध्र यवनिका हटी।
	     भोर की स्निग्ध बयार जगी,
	     तृण-बालाओं की मंगल रजत-कलसियों से
	     कुछ ओस बूँद झरे,
	     चिड़ियों ने किया रोर,
	     आकारों में फिर रंग भरे,
	     गन्धों के छिपे कोश बिखरे,
	     दूर की घंटा-ध्वनि वायु-मंडल को कँपाने लगी।
	     फेंके हुए अखबार की सरसराहट,
	     पड़ोस के चूल्हों के नये धुओं की चिनियाहटें,
	     ग्वाले के कमंडल की खड़कन,
	     कलों से बेचैन नये पानी का टपकना,
	     बच्चों के पैरों की डगमग आहटें,
	     आलने पर कल से उतारे हुए, मसले, फटे हुए
	     कुरते का फ़रियादी रूप,
	     दवा की अधूरी शीशी से सटे हुए
	     रुई के गाले का चौंधी आँख-सा झपकना,
	     पिंजरे में सहसा जागे पंछी-सी
	     अपने दिल की धड़कन :
	     परिचित के सहसा सब खुल गये द्वार :
	     उमड़ने लगा होने का आदि-अन्तहीन पारावार।
	     और यह सब इस कारणहीन, अप्रत्याशित,
	     अनधिकृत, विस्मयकर संयोग से कि
	     किसी दुःस्वप्न के चंगुल में अचानक रात में
	     साँस नहीं उलटी!
	मोतीबाग, नयी दिल्ली
	1 नवम्बर, 1957 (भोर 5 बजे)
	                 पहेली
	      गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल,
	      शिष्य से बोले : कहाँ चला ले जाल अभी
	      ‘‘पहले मछलियाँ पकड़ तो ला?’’
	      तकता रह गया बिचारा
	
	      भौचक।
	      बीत गये युग। चले गये गुरु।
	      बूढ़ा, धवल-केश, कुंचित-मुख
	      चेला सोच रहा था अभी प्रश्न :
	      ‘‘क्यों चला जाल ले?
	      पहले, रे, मछलियाँ पकड़ तो ला!’’
	      सहसा भेद गयी तीखी आलोक-किरण।
	      ‘अरे, कब से बेचारी मछली
	      घिर अगाध से
	      सागर खोज रही है!’
	प्नोम् पेञ् (कम्बुजिया)
	2 नवम्बर, 1957
	                अपलक रूप निहारूँ
	     अपलक रूप निहारूँ
	     तन-मन कहाँ रह गये?
	     चेतन तुझ पर वारूँ,
	     अपलक रूप निहारूँ!
	     अनझिप नैन, अवाक् गिरा
	     हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना
	     पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से
	     मैं आरती उतारूँ।
	     अपलक रूप निहारूँ।
	प्नोम् पेञ् (कम्बुजिया)
	2 नवम्बर, 1957
	               रात-भर आते रहे सपने
	     रात-भर आते रहे सपने :
	     एक भी अच्छा नहीं था।
	     किन्तु वास्तव जगत में मुझ को अनेकों बार
	     सुख मिलता रहा है।
	     रात भी जब जगा
	     शय्या सुखद ही थी।
	     यही क्या तब मानना होगा
	     कि सपने बुरे हैं सो सत्य हैं
	     और सुख की वास्तविकता झूठ है?
	तोक्यो
	14 नवम्बर, 1957
	              कवि-कर्म
	     ब्राह्म वेला में उठ कर
	     साध कर साँस
	     बाँध कर आसन
	     बैठ गया कृतिकार रोध कर चित्त :
	     ‘रचूँगा।’
	     एक ने पूछा : कवि ओ, क्या रचते हो?
	     कवि ने सहज बताया।
	     दूसरा आया।-अरे, क्या कहते हो?
	     तुम अमुक रचोगे? लेकिन क्यों?
	     शान्त स्वर से कवि ने समझाया।
	     तभी तीसरा आया। किन्तु, कवे!
	     आमूल भूल है यह उपक्रम!
	     परम्परा से यह होता आया है यों।
	     छोड़ो यह भ्रम!
	     कवि ने धीर भाव से उसे भी मनाया।
	     यों सब जान गये
	     कृतिकार आज दिन क्या रचने वाला है
	     पर वह? बैठा है सने हाथ, अनमना,
	     सामने तकता मिट्टी के लोंदे को :
	     कहीं, कभी, पहचान सके वह अपना
	     भोर का सुन्दर सपना।
	     झुक गयी साँझ
	     पर मैं ने क्यों बनाया?
	     क्या रचा?
	     -हाय! यह क्या रचाया।
	14 नवम्बर, 1957
	               रूप-केकी
	     रूप-केकी नाचते हैं,
	     सार-घन! बरसो।
	     बहुत विस्मृत, बहुत सूना
	     है गगन जिस को नहीं
	     उन की पुकारें भर सकेंगी,
	     बहुत है गरिमा धरा की
	     नहीं उस के कर्ष-बल से आत्म-विभोर भी
	     उन की उड़ान उबर सकेगी।
	     तुम्हीं अपनी दामिनी मायाविनी की
	     लेखनी अमरत्वदायिनी से
	     उन्हें परसो।
	     सार-घन! बरसो।
	     रूप-केकी नाचते हैं,
	     सार-घन! बरसो।
	क्योतो-ओसाका (रेल में)
	16 दिसम्बर, 1957
	               रात और दिन
	     रात बीतती है
	     घर के शान्त झुटपुटे कोने में-
	     सब माँगें पंछी-सी डैनों में सिर खोंस
	     जहाँ पर अपने ही में खो जाती हैं,
	     तनी साँस भी  स्वस्ति-भाव से
	     आ जाती है सहज विलम्बित लय पर।
	     दिन खुलता है
	     बड़े शहर के शोर-भरे बीहड़ में बेकल दौड़ रहे
	     उखड़े लोगों की भीड़ों में-
	     मोड़-मोड़ पर जिन्हें इश्तहारों के रंग-बिरंगे कोड़े
	     चलता रखते हैं रंगीन सनसनी की तलाश में।
	     रात अकेले में झीनी-सी छाया एक खड़ी रहती है सिरहाने,
	     कहती रहती है शब्द बिना :
	     ‘‘तुम मेरे हो, मैं कहीं रहूँ, यह मेरा स्नेह कवच-सा तुम्हें ढके रहता है;
	     मैं कुछी करूँ, मेरे कामों में हम दोनों की प्रतिश्रुतियों का स्पन्दन है,
	     मैं कुछी कहूँ, मेरे अन्तस् में अगरु-धूम-सी
	     मंगल-आशंसाएँ उठती रहती हैं अविराम
	     तुम सोओ, जागो, कर्म करो, हो विरत,
	     सर्वदा सब में मैं हूँ : तुम मेरी अग्नि-शिखा हो-
	     यह देखो मेरी श्रद्धांजलि : यह एक साथ
	     है उसे बचाती और सौंपती-
	     और स्निग्ध उस की गरमाई से पुरती भी जाती है।
	     दिन के जन-संकुल में
	     भीड़पने की लहरों के अनवरत थपेड़े
	     निर्मम दुहराते जाते हैं :
	     ‘‘तुम अपने नहीं, पराये हो,
	     हम चाहे जितना गले मिलें,
	     चाहे जितना हम मुसकानों के बिछा पाँवड़े
	     बरसाएँ स्वागत-पंखुड़ियाँ,
	     तुम तुम हो-अजनबी एक, बेमेल, बिराने।
	     माला के एक फूल की पंखुड़ियों के भीतर
	     चिउँटा फूल-सेज पर सोये पर वह फूल नहीं है,
	     गुँथा नहीं है माला में-
	     वैसे ही तुम, अजनबी, पराये हो!’’
	     सुनते थे रात और दिन मणियाँ हैं जीवन की माला की,
	     पर कौन जौहरी इतने अनमिल मन के
	     एक सूत्र में गूँथेगा?
	ओसाका
	18 दिसम्बर, 1957
	               औद्योगिक बस्ती
	     पहाड़ियों से घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में
	     ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर
	     धुआँ उगलती जाती हैं।
	     भीतर जलते लाल धातु के साथ
	     कमकरों की दुःसाध्य विषमताएँ भी
	     तप्त उबलती जाती हैं।
	     बँधी लीक पर रेलें लादे माल
	     चिहुँकती और रँभाती अफराये डाँगर-सी
	     ठिलती चलती जाती हैं।
	     उद्यम की कड़ी-कड़ी में बँधते जाते मुक्तिकाम 
	     मानव की आशाएँ ही पल-पल
	     उस को छलती जाती हैं।
	ओसाका-हिरोशिमा (रेल में)
	17 दिसम्बर, 1957
	               लौटे यात्री का वक्तव्य
	     सभी जगह जो उपजाता है अन्न, पालता सब को,
	     उस की झुकी कमर है।
	     सभी जगह जो शास्ता है,
	     जो बागडोर थामे है, उस की दीठ मन्द है-
	     आँखों पर है चढ़ा हुआ मोटा चश्मा जो
	     प्रायः धूमिल भी होता है।
	     सभी जगह जिसकी मुट्ठी में ताक़त है
	     उस का भेजा है एक ओर भेड़िये,
	     दूसरी पर मर्कट का।
	     सभी जगह जो रंग-बिरंगी जाज़म पर फैला कर सपनों की मनियारी
	     घात लगाते हैं गाहक की,
	     दिल मुर्ग़ी का रखते हैं।
	     सभी जगह जो मूल्यवान् है
	     सकुचा रहता है; अदृश्य, सीपी के मोती-सा,
	     जो मिलता नहीं बिना सागर में डूबे :
	     सभी जगह जो छिछला है, ओछा है,
	     नक़ली कीमख़ाब पर सजा हुआ बैठा है लकदक
	     चौंधाता आँखों को, जब तक ठोकर लगे, पैर रपटे
	     या जेब कटे, नीयत बिगड़े, हो मतिभ्रंश, दिल डँसा जाय!
	     सभी जगह है प्रश्न एक :
	     क्या दोगे? कितना दे सकते हो?
	     यही पूछते हैं जो फिर भेदक आँखों से
	     लेते हैं टटोल अंटी में क्या है :
	     यही दूसरे पूछ, नाप लेते हैं कितना
	     लहू देह में बाक़ी होगा :
	     यही तीसरे, आँक रहे जो
	     मांस-पेशियों में कितना है श्रम-बल-
	     (बिना छुए या टोडे जैसे चूजे॓ को गाहक टोहता है।)
	     यही और, जो तिनकों को सिखलाते
	     बँधी हुई गड्डी की ताक़त, किन्तु बाँधने वाला तार
	     सदा अपनी मुट्ठी में रखते हैं :
	     यही और, जिन की लोलुपता
	     देने का आमन्त्रण सब को देती है,
	     क्यों कि सिवा इस देने के बस उन को लेना ही लेना है।
	     और यही वे भी, जिन की जिज्ञासा-
	     कभी नहीं होती रूपायित, मुखरित
	     जो अनासक्त हैं, जिन्हें स्वयं कुछ नहीं किसी से लेना है
	     क्या दोगे? कितना दोगे-दे सकते हो-
	     मुझे नहीं, जग-भर को, जीवन-भर को,
	     प्यार? हिरोशिमा
	18 दिसम्बर, 1957
	                सान्ध्य तारा
	     साँझ। बुझता क्षितिज।
	     मन की टूट-टूट पछाड़ खाती लहर।
	     काली उमड़ती परछाइयाँ।
	     तब एक तारा भर गया आकाश की गहराइयाँ।
	जापान
	21 दिसम्बर, 1957
	               सागर पर भोर
	     बहुत बड़ा है यह सागर का सूना
	     बहुत बड़ा यह ऊपर छाया औंधा खोखल।
	     असमंजस के एक और दिन पर, ओ सूरज,
	     क्यों, क्यों, क्यों यह तुम उग आये?
	आटाभी (जापान)
	21 दिसम्बर, 1957
	               मैं ने कहा, पेड़...
	     मैं ने कहा, ‘‘पेड़, तुम इतने बड़े हो,
	     इतने कड़े हो, न जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में
	     सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।
	     सूरज उगता-डूबता है, चाँद भरता-छीजता है
	     ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता-पसीजता है;
	     और तुम सब सहते हुए
	     सन्तुलित शान्त धीर रहते हुए
	     विनम्र हरियाली से ढके, पर भीतर ठोठ कठैठे खड़े हो!’’
	     काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ
	     बोलीं मानो, ‘‘नहीं, नहीं, नहीं, झूठा
	     श्रेय मुझे मत दो!
	     मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता
	     या कि सूख ठूँठ हो के टूट जाता,
	     श्रेय है तो मेरे पैरों-तले इस मिट्टी को
	     जिस में न जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं :
	     ऊपर उठा हूँ उतना ही आकाश में
	     जितना कि मेरी जड़ें नीचे दूर धरती में समायी हैं।
	     श्रेय कुछ मेरा नहीं, जो है इस नामहीन मिट्टी का।
	     और, हाँ, इन सब उगने-डूबने, भरने-छीजने,
	     बदलने, मलने, पसीजने,
	     बनने-मिटने वालों का भी :
	     शतियों से मैं ने बस एक सीख पायी है :
	     जो मरणधर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं।’’
	तोक्यो (जापान)
	24 दिसम्बर, 1957
	               सागर पर साँझ
	     बहुत देर तक हम चुपचाप
	     देखा किये सागर को।
	     फिर कुछ धीरे से बोला :
	     ‘‘हाँ, लिख लो मन में इस जाती हुई धूप को,
	     चीड़ों में सरसराती हुई इस हवा को,
	     लहरों की भोली खिलखिलाहट को :
	     लिख लो सब मन में-क्यों कि फिर
	     दिनों तक-(क्या बरसों तक?)-
	     इसी सागर पर तुम लिखा करोगे
	     दर्द की एक रेखा-बस एक रेखा
	     जो, हो सकता है, मूर्त स्मृति भी नहीं लाएगी-
	     केवल स्वयं आएगी एक रेखा जिसे
	     न बदला जा सकता है, न मिटाया जा सकता है
	     न स्वीकार द्वारा ही डुबा दिया जा सकता है
	     क्यों कि वह दर्द की रेखा है, और दर्द
	     स्वीकार से भी मिटता नहीं है...’’
	     लौट हम आये साँझ घिरते न घिरते।
	     पर फिर उस सागर-तट पर रात को
	     उगा तारा : उसी पर छितरायी चन्द्रमा ने चाँदनी
	     उसी पर नभोवृत्त होता रहा और नीला, अपलक :
	     ये भी तो लहरों पर कुछ लिखते रहे!
	     हम ने जो लिखा था
	     अगर वह दर्द है
	     तो ये क्या लिखते हैं :
	     न सही दर्द उन में,
	     न सही भावना-फिर भी, निर्वेद भी,
	     कुछ तो वे लिखते हैं?
	     हाँ!
	     कि ‘‘दर्द है तो ठीक है :
	     (दर्द स्वीकार से भी मिटता नहीं है
	     स्वीकार से पाप मिटते हैं, पर दर्द पाप नहीं है।)
	     दर्द कुछ मैला नहीं,
	     कुछ असुन्दर, अनिष्ट नहीं,
	     दर्द की अपनी एक दीप्ति है-
	     ग्लानि वह नहीं देता।
	     तुम ने यदि दर्द ही लिखा है,
	     भद्दा कुछ नहीं लिखा, झूठा कुछ नहीं लिखा,
	     तो आश्वस्त रहो : हम उसे गहरा ही करेंगे, सारमय बनाएँगे,
	     उस में रंग भरेंगे, रूप अवतरेंगे,
	     उसे माँज-माँज कर नयी एक आभा देते रहेंगे,
	     काल भी उसे एक ओप ही देगा और।
	     जाओ, वह लिखा हुआ दर्द यहाँ छोड़ जाओ-
	     तुम्हें वह बार-बार नाना शुभ रूपों में फलेगा।’’
	जापान (शिमिजू सागर-तट पर)
	5 जनवरी, 1958
	               मानव अकेला
	     भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं
	     वह सहसा दिख जाता है
	     मानव अंगारे-सा-भगवान्-सा
	     अकेला।
	     और हमारे सारे लोकाचार
	     राख की युगों-युगों की परते हैं।
	जनवरी, 1958
	               सागर-तट : सन्ध्या तारा
	     मिटता-मिटता भी मिटा नहीं आलोक,
	     झलक-सी छोड़ गया सागर पर।
	     वाणी सूनी कह चुकी विदा : आँखों में
	     दुलराता आलिंगन आया मौत उतर।
	     एक दीर्घ निःश्वास :
	     व्योम में सन्ध्या-तारा
	     उठा सिहर।
	हांगकांग शिखर
	19 जनवरी, 1958
	               हवाई अड्डे पर विदा
	     उड़ गया गरजता यन्त्र-गरुड़
	     बन बिन्दु, शून्य में पिघल गया।
	     पर साँप? लोटता डसता छोड़ गया वह उसे यहीं पर
	     आँखों के आगे धीर-धीरे सब धुँधला होता आता है-
	     मैदान, पेड़, पानी, गिरि, घर, जन-संकुल।
	हांगकांग
	25 जनवरी, 1958
	               मैं ने देखा, एक बूँद 
	     मैं ने देखा एक बूँद सहसा
	     उछली सागर के झाग से :
	     रँग गयी क्षण-भर
	     ढलते सूरज की आग से।
	     मुझ को दीख गया :
	     सूने विराट् के सम्मुख
	     हर आलोक-छुआ अपनापन
	     है उन्मोचन नश्वरता के दाग़ से!
	नयी दिल्ली
	5 मार्च, 1958
	               जन्म-दिवस
	     एक दिन और दिनों-सा
	     आयु का एक बरस ले चला गया।
	नयी दिल्ली
	7 मार्च, 1958
	               प्राप्ति
	     स्वयं पथ-भटका हुआ
	     खोया हुआ शिशु
	     जुगनुओं को पकड़ने को दौड़ता है
	     किलकता है :
	     ‘पा गया! मैं पा गया!’
	1958
	               चिड़िया की कहानी
	     उड़ गयी चिड़िया काँपी, फिर
	     थिर हो गयी पत्ती।
	नयी दिल्ली
	1958
	              वसन्त
	     यह क्या पलास की लाल लहकती
	     आग रही कारण, जो वनखंडी की हवा हो चली गर्म आज?
	इलाहाबाद
	मई, 1958
	               धूप
	     सूप-सूप भर धूप-कनक
	     यह सूने नभ में गयी बिखर :
	     चौंधाया बीन रहा है
	     उसे अकेला एक कुरर।
	अल्मोड़ा
	5 जून, 1958
	               न दो प्यार
	     न दो प्यार खोलो न द्वार
	     तुम कोई इस अन्धी दिवार में :
	     पा लूँगा दरार मैं कोई। हो न सकूँगा पार-
	     न हो : मैं बीज उसी में डालूँगा : वह फूटेगा : डार-डार
	     से उस की झूमेगा फल-भार। 
	     नहीं तो और कौन है द्वार
	     -या प्यार?
	अल्मोड़ा
	5 जून, 1958
	              पगडंडी
	     यह पगडंडी चली लजीली
	     इधर-उधर, अटपटी चाल से नीचे को, पर
	     वहाँ पहुँच कर घाटी में-खिलखिला उठी।
	     कुसुमित उपत्यका।
	अल्मोड़ा
	जून, 1958
	               यह मुकुर
	     यह मुकुर दिया था तू ने :
	     आज यह मुझ से टूट गया।
	     यों मोह कि तेरे प्रिय की छवि को
	     बार-बार मैं देखूँ-छूट गया।
	     उस दिन यह मुकुर रचा तेरा,
	     तेरे हाथों में टूटेगा,
	     मोह दूसरा पात्र प्यार का
	     रचने का उस दिन क्या
	     तुझ से छूटेगा?
	अल्मोड़ा
	10 जुलाई, 1958
	               सागर-चित्र
	     सूने उदधि की लहर
	     धीर बधिर :
	     सूने क्षितिज का आत्मलीन आलोक
	     अधूरा, धूसर, अन्धा :
	     टकराहट चट्टानों पर
	     थोथे थप्पड़ की जल के :
	     उड़े झाग की चिनियाहट
	     गालों पर, आँखों में किरकिरी रेत
	     अर्थहीन मँडराते कई क्रौंच
	     हकलाते-से जब-तब कराहते हलके।
	     यह क्षण, यह चित्र : दरिद्र?
	     अ-मूल? अमोल? विलीयमान? चिर?
	नयी दिल्ली (रेस्तराँ में बैठे-बैठे)
	25 अगस्त, 1958
	               नया कवि : आत्म-स्वीकार
	     किसी का सत्य था,
	     मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।
	     कोई मधु-कोष काट लाया था,
	     मैं ने निचोड़ लिया।
	     किसी की उक्ति में गरिमा थी
	     मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,
	     किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
	     मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।
	     कोई हुनरमन्द था :
	     मैं ने देखा और कहा, ‘यों!’
	     थका भारवाही पाया-
	     घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों?’
	     किसी की पौध थी,
	     मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
	     किसी की लगायी लता थी,
	     मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।
	     किसी की कली थी
	     मैं ने अनदेखे में बीन ली,
	     किसी की बात थी
	     मैं ने मुँह से छीन ली।
	     यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :
	     काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?
	     चाहता हूँ आप मुझे
	     एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें?
	     पर प्रतिमा...अरे, वह तो
	     जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें!
	नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर)
	3 सितम्बर, 1958
	               नये कवि से
	     आ, तू आ, हाँ, आ,
	     मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
	     मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता-
	     आ, तू आ।
	     तेरा कहना है ठीक : जिधर मैं चला
	     नहीं वह पथ था :
	     मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर
	     सदा जिसे पथ कहा गया, जो
	     इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर
	     कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।
	     मेरी खोज नहीं थी उस मिट्टी की
	     जिस को जब चाहूँ मैं रौंदूँ : मेरी आँखें
	     उलझी थीं उस तेजोमय प्रभा-पुंज से
	     जिस से झरता कण-कण उस मिट्टी को
	     कर देता था कभी स्वर्ण तो कभी शस्य,
	     कभी जीव तो कभी जीव्य,
	     अनुक्षण नव-नव अंकुर-स्फोटित, नव-रूपायित।
	     मैं कभी न बन सका करुण, सदा
	     करुणा के उस अजस्र सोते की ओर दौड़ता रहा जहाँ से
	     सब कुछ होता जाता था प्रतिपल
	     आलोकित, रंजित, दीप्त, हिरण्मय
	     रहस्य-वेष्टित, प्रभा-गर्भ, जीवनमय।
	     मैं चला, उड़ा, भटका, रेंगा, फिसला,
	     -(क्या नाम क्रिया के उस की आत्यन्तिक गति को कर सके निरूपित?)-
	     तू जो भी कह-आक्रोध नहीं मुझ को,
	     मैं रुका नहीं मुड़ कर पीछे तकने को,
	     क्यों कि अभी भी मुझे सामने दीख रहा है
	     वह प्रकाश : अभी भी मरी नहीं है
	     ज्योति टेरती इन आँखों की।
	     तू आ, तू देख कि यह पैरों की छाप पड़ी है जहाँ,
	     कहीं वह है सूना फैलाव रेत का जिस में
	     कोई प्यासा मर सकता है :
	     बीहड़ झारखंड है कहीं, कँटीली
	     जिस की खोहों में कोई बरसों तक चाहे भटक जाय,
	     कहीं मेड़ है किसी परायी खेती की, मुड़ कर ही
	     जिस के अगल-बगल से कोई गलियारा पा लेना होगा।
	     कहीं कुछ नहीं, चिकनी काली रपटन जिस के नीचे
	     एक कुलबुलाती दलदल है
	     झाग-भरा मुँह बाये, घात लगाये।
	     किन्तु प्यास से मरा नहीं मैं, गलियारे भी
	     चाहे जैसे मुझे मिले : दलदल में भी मैं
	     डूबा नहीं। 
	     पर आ तू, सभी कहीं, सब चिह्न रौंदता
	     अपने से आगे जाने वाले के-
	     आ, तू आ, रखता पैरों पर पैर,
	     गालियाँ देता, ठोकर मार मिटाता अनगढ़
	     (और अवांछित रखे गये!)
	     इन मर्यादा-चिह्नों को
	     आ, तू आ!
	     आ तू, दर्पस्फीत जयी!
	     मेरी तो तुझे पीठ ही दीखेगी-क्या करूँ कि मैं आगे हूँ 
	     और देखता भी आगे की ओर?
	     पाँवड़े
	     मैं ने नहीं बिछाये-वे तो तभी, वहीं
	     बिछ सकते हैं प्रशस्त हो मार्ग जहाँ पर।
	     आता जा तू, कहता जा जो जी आवे :
	     मैं चला नहीं था पथ पर,
	     पर मैं चला इसी से
	     तुझ को बीहड़ में भी ये पद-चिह्न मिले हैं,
	     काँटों पर ये एकोन्मुख संकेत लहू के,
	     बालू की यह लिखत, मिटाने में ही
	     जिस को फिर से तू लिख देगा।
	     आ तू, आ, हाँ, आ,
	     मेरे, पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
	     जयी, युगनेता, पथ-प्रवर्त्तक,
	     आ तू आ- ओ गतानुगामी!
	नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगरी)
	3 सितम्बर, 1958
	               यह कली
	     यह कली 
	     झुटपुट अँधेरे में पली थी देहात की गली में; 
	     भोली-भली नगर के राज-पथ, दिपते
	     प्रकाश में गयी छली।
	     झरी नहीं, बही कहीं
	     तो निकली नहीं,
	     लहर कहाँ? भँवर फँसी।
	     काल डँसी गयी मली-यह कली।
	नयी दिल्ली (एम्बेसी रेस्तराँ में)
	18 सितम्बर, 1958
	               रोपयित्री
	     गलियारे से जाते-जाते
	     उन दिन लख भंगिमा तुम्हारी
	     और हाथ की मुद्रा,
	     यही लगा था मुझे
	     खेत में छिटक रही हो बीज।
	     किन्तु जब लौटा, देखा
	     भटके डाँगर रौंद गये हैं सभी क्यारियाँ
	     भूल गया मै आज, अरे! सहसा पाता हूँ :
	     अंकुर एक-अनेक-असंख्य-
	     धरा मानो श्यामल रोमाली के प्रहर्ष से
	     हो रोमांचित।
	     हाँ, विस्मय-विभोर
	     सब जैसे हैं, मैं भी हूँ :
	     मनोरंग में मेरे भी वह आने वाली
	     धान-भरी बाली सोनाली
	     थिरक रही है : मैं भी आँचल
	     तब पसार दूँगा जब गूँजेगी उस की पद-पायल,
	     मैं भी लूँगा बीन-छीन
	     कण-दो कण जो भी हाथ लगेंगे
	     उस रसवन्ती की पुष्कल करुणा के।
	     किन्तु जानता हूँ, रहस्य मैं अन्तरतम में :
	     धरणी सुखदा, शुभदा, वरदा,
	     भरणी है, पर यह प्रणाम मेरा
	     है तुम को, केवल तुम को।
	     भूल गयी थी स्मृति-(दुर्बल!)-पर
	     तुम्हें मैं नहीं भूला।
	नयी दिल्ली (एम्बेसी रेस्तराँ में)
	20 सितम्बर, 1958
	               बड़ी लम्बी राह
	     न देखो लौट कर पीछे
	     वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
	     न कुछ है देखने को
	     उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
	     हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
	     अनुभूति के तेज़ाब से
	     राह चलते। बड़ी लम्बी राह।
	     गा रही थी एक दिन
	     उस छोर बेपरवाह,
	     लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह
	     -अवगुंठनमयी ठगिनी!-
	     एक मीठी रागिनी।
	     बड़ी लम्बी राह।
	     आज सँकरे मोड़ पर यह
	     वास्तविक की वस्तुवादी
	     धारदार विडम्बना रो रही है :
	     एक नंगी डाकिनी।
	     बड़ी लम्बी राह : आह,
	     पनाह इस पर नहीं-कोई ठौर उस पर छाँह हो।
	     कौन आँके मोल उस के शोध का
	     मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने
	     एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला?
	     जल जहाँ है नहीं क्या वह अब्धि है
	     रेत क्या उपलब्धि है?
	     बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर
	     थे हम, एक ही संवेदना की डोर
	     बाँधती थी हम-तुम को : और हम-तुम मानते थे
	     डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्यों कि
	     पुनीत है, उन से बँधे
	     सरकार आएँगे चले।
	     बड़ी लम्बी राह! अब इस ओर पर
	     संवेदना की आरियाँ ही
	     मुझे तुम से काटती हैं :
	     और फिर लोहू-सनी उन धारियों में
	     और राहों की अथक ललकार है।
	     और वे सरकार? कितनी बार हम-तुम और जाएँगे छले!
	     बड़ी लम्बी राह : आँख-कोरों से लगा कर
	     ओठ के नीचे-मुड़े कोने तलक, तेज़ाब-आँकी
	     एक बाँकी रेख :
	     ‘नहीं जिस से अधिक लम्बी, अमिट या कि अमोघ
	     विधि की लेख न देखो लौट कर पीछे
	     भृकुटि मत कसो, मत दो ओट चेहरे को,
	     चोट से मत बचो; अनुभव डँसे;
	     न पूछो और कौन पड़ाव अब कब आएगा?
	     तेज़ाब जब चुक जाएगा-थम जाएँगे, सब यन्त्र; कारोबार
	     अपने-आप सब रुक जाएगा!
	नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर)
	22 सितम्बर, 1958
	                इशारे ज़िन्दगी के
	     ज़िन्दगी हर मोड़ पर करती रही हम को इशारे
	     जिन्हें हम ने नहीं देखा।
	     क्यों कि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
	     और, हम ने बाँधने से पूर्व देखा था-
	     हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं।
	     ज़िन्दगी करती रही नीरव इशारे :
	     हम धनी थे शब्द के।
	     ‘शब्द ईश्वर है, इसी से वह रहस् है’,
	     ‘शब्द अपने आप में इति है’,-
	     हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
	     शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथ कर माला पिन्हाना चाहते थे
	     नये रूपाकार को, और हम ने यही जाना था
	     कि रूपाकार ही तो सार है।
	     एक नीरव नदी बहती जा रही थी,
	     बुलबुले उस में उमड़ते थे 
	     रहःसंकेत के : हर उमड़ने पर हमें रोमांच होता था,
	     फूटना हर बुलबुले का, हमें तीखा दर्द होता था।
	     रोमांच! तीखा दर्द!
	     नीरव रहःसंकेत-हाय!
	     ज़िन्दगी करती रही नीरव इशारे,
	     हम पकड़ते रहे रूपाकार को।
	     किन्तु रूपाकार चोला है
	     किसी संकेत शब्दातीत का,
	     ज़िन्दगी के किसी गहरे इशारे का।
	     शब्द :
	     रूपाकार :
	     फिर संकेत-ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत-
	     अनगिनती इशारे ज़िन्दगी के
	     ओट में जिन की छिपा है
	     अर्थ!
	     हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को-
	     पूर्व इस के, शब्द ललके, अंक भेंटे अर्थ को,
	     क्या हमारे हाथ में वह मन्त्र होगा, हम इन्हें सम्पृक्त कर दें?
	     अर्थ दो, अर्थ दो।
	     मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो!
	     हम समझते हैं इशारा ज़िन्दगी का-
	     हमें पार उतार दो-रूप मत, बस सार दो।
	     मुखर वाणी हुई, बोलने हम लगे :
	     हम को बोध था वे शब्द सुन्दर हैं-
	     सत्य भी हैं, सारमय हैं।
	     पर हमारे शब्द जनता के नहीं थे,
	     क्यों कि जो उन्मेष हम में हुआ
	     जनता का नहीं था, हमारा दर्द
	     जनता का नहीं था,
	     संवेदना ने ही विलग कर दी
	     हमारी अनुभूति हम से।
	     यह जो लीक हम को मिली थी-
	     अन्धी गली थी।
	     चुक गयी क्या राह! लिख दें हम
	     चरम लिखतम् पराजय की?
	     इशारे क्या चुक गये हैं
	     ज़िन्दगी के अभिनयांकुर में?
	     बढ़े चाहे बोझ जितना
	     शास्त्र का, इतिहास का
	     रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का-
	     कम नहीं ललकार होती ज़िन्दगी की।
	     मोड़ आगे और हैं-
	     कौन उस की ओट, देखो, झाँकता है?
	दिल्ली-सागर (रेल में)
	23 नवम्बर, 1958
	               नया कवि : आत्मोपदेश
	     शक्ति का मत गर्व कर
	     तू उपशमन का कर,
	     हीं रूपाकार को, उस में 
	     छिपा है सार जो, वह वर!
	     अनुभूति से मत डर-मगर पाखंड उस के दर्द का मत कर :
	     नहीं अपने-आप जो स्पन्दन डँसे
	     तेरी धमनियों को, त्वचा की कँपकँपी से
	     झूठ मत आभास उस का स्वय
	     अपने को दिखाने की उतावली से भर!
	     ग़ैर को मत कोंच तू पहचान अपनापन : 
	     चुनौती है जहाँ तू अविकल्प साहस कर :
	     ‘यहाँ प्रतिरोध दुर्बल है, सुलभ जय’, सोच
	     ऐसा, साहसिक मत बन।
	     अभियान में जिन खाइयों में
	     कूदना है, कूद : भरा है उन में अँधेरा इसलिए
	     मत नयन अपने मूँद!
	     दीठ की मत डींग भर : जो दिखा उस के बूझने की
	     तू तपस्या कर :झाड़ मत पल्ला छुड़ा कर
	     स्वयं अपने-आप से तू झर।
	     प्यास पर तू विजय पा कर,
	     और जो प्यासे मिलें, उन के लिए
	     चुप-चाप निश्चल स्वच्छ शीतल
	     प्राण-रस से भर।
	     तू उसे देखे न देखे,
	     झर रहा जो अन्तहीन प्रकाश-
	     उसे माथा झुका कर पी :
	     तू उसे चीन्हे न चीन्हे
	     हो रहा जो प्राण-स्पन्दन चतुर्दिक गतिमान
	     उस में डूब कर तू जी।
	     तू उसे ओढ़े न ओढ़े
	     व्याप्त मानव-मात्र में है जो विशद अभिप्राय
	     तू न उस से टूट :
	     भीड़ का मत हो, डटा रह, मगर
	     दिग्विद पान्थ के समुदाय से तू
	     अकेला मत छूट।
	     एकाकियों की राह?
	     वह भी है
	     मगर तब जब कि वह
	     सब के लिए तोड़ी गयी हो।
	     अकेला निर्वाण?
	     वह भी है
	     अगर उस की चाह
	     सभी के कल्याण के हित
	     स्वेच्छया छोड़ी गयी हो।
	     कहाँ जाता है, इसे मत भूल :
	     कौन आता है, न इस को भी
	     कभी मन से उतरने दे।
	     राह जिस की है उसी की है।
	     कगारे काट, पत्थर तोड़,
	     रोड़ी कूट, तू पथ बना, लेकिन
	     प्रकट हो जब जिसे आना है
	     तू चुप-चाप रस्ता छोड़ :
	     मुदित-मन वार दे दो फूल,
	     उसे आगे गुज़रने दे।
	सागर-दिल्ली (रेल में)
	26 नवम्बर, 1958
	               बाँगर और खादर
	     बाँगर में राजाजी का बाग़ है,
	     चारों ओर दीवार है
	     जिस में एक द्वार है,
	     बीच-बाग़ कुआँ है
	     बहुत-बहुत गहरा।
	     और उस का जल
	     मीठा, निर्मल, शीतल।
	     कुएँ तो राजाजी के और भी हैं
	     -एक चौगान में, एक बाज़ार में-
	     पर इस पर रहता है पहरा।
	     खादर में राजाजी के पुरवे हैं,
	     मिट्टी के घरवे हैं,
	     आगे खुली रेती के पार
	     सदानीरा नदी है।
	     गाँवों के गँवार उसी में नहाते हैं,
	     कपड़े फींचते हैं,
	     आचमन करते हैं,
	     डाँगर भँसाते हैं,
	     उसी से पानी उलीच
	     पहलेज सींचते हैं,
	     और जो मर जाएँ उन की मिट्टी भी
	     वहीं होनी बदी है।
	     कुएँ का पानी राजाजी मँगाते हैं,
	     शौक से पीते हैं।
	     नदी पर लोग सब जाते हैं,
	     उस के किनारे मरते हैं
	     उस के सहारे जीते हैं।
	     बाँगर का कुआँ
	     राजाजी का अपना है,
	     लोक-जन के लिए एक
	     कहानी है, सपना है।
	     खादर की नदी नहीं
	     किसी की बपौती की,
	     पुरवे के हर घरवे को
	     गंगा है अपनी कठौती की।
	नयी दिल्ली
	1 दिसम्बर, 1958
	               वहाँ पर बच जाय जो
	     जहाँ पर धन
	     नहीं है राशि वह जिस को समुद
	     तेरे चरण पर वार दूँ
	     जहाँ पर तन
	     नहीं है थाती-मिली वह धूल पावन
	     जिस में चोले समान उतार दूँ
	     जहाँ पर मन नहीं है यज्ञ का दुर्दान्त घोड़ा
	     जिसे लौटा तुझे दे
	     मैं समर्थ जयी कहाऊँ
	     जहाँ पर जन नहीं है शक्ति का संघट्ट
	     जिस में डूब कर ही मैं प्रतिष्ठित व्यक्तित्व पाऊँ
	     जहाँ पर अहं भी
	     -जो अजाना, अछूता औ’ उपेक्षावश अलक्षित हो
	     अनाहत रह गया हो-
	     नहीं है अन्तिम निजत्व
	     लुटा जिसे औदार्य का सन्तोष मेरा हो
	     -वहाँ पर बच जाय जो
	     (वह क्या, मैं नहीं यह जानता, ओ देवता, 
	     तू जान जो सब जानता है)
	     उसी अन्तिम सर्ग पर बच जाय जो
	     वही तेरा हो।
	     वह जो हो
	     जो कुछ है वही है
	     उसी को ले : मुक्ति मुझ को दे।
	     आज पूरे बोध से यह बात जो मैं ने कही है
	     यही मेरा साक्ष्य है : मैं प्रतिश्रुति हूँ साथ
	     तेरे : यह मेरी सही है।
	दिल्ली-इलाहाबाद (रेल में)
	17 दिसम्बर, 1958
	               जीवन-छाया
	     पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ
	     अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल पर-
	     तल पर, भीतर, नीचे पथरीले-रेतीले थल पर :
	     अरे, उसे ये पल-पल भेद-भेद जाती हैं
	     कितनी उज्ज्वल रंगारंग मछलियाँ।
	इलाहाबाद
	19 दिसम्बर, 1958
	                मछलियाँ
	     न जाने मछलियाँ हैं भी या नहीं
	     आँखें तुम्हारी
	     किन्तु मेरी दीप्त जीवन-चेतना निश्चय नदी है
	     हर लहर की ओट जिस की उन्हीं की गति
	     काँपती-सी जी रही है
	     पिरोती-सी रश्मियाँ हर बूँद में।
	इलाहाबाद
	19 दिसम्बर, 1958
	               उन्मत्त
	     सूँघ ली है साँस भर-भर
	     गन्ध मैं ने इस निरन्तर
	     खुले जाते क्षितिज के उल्लास की,
	     खा गया हूँ नदी-तट की
	     लहराती बिछलन जिसे सौ बार
	     धो-धो कर गयी है अंजली वातास की,
	     पी गया हूँ अधिक कुछ मैं
	     स्निग्ध सहलाती हुई-सी
	     धूप यह हेमन्त की,
	     आज मुझ को चढ़ गयी है
	     यह अथाह अकूल अपलक
	     नीलिमा आकाश की।
	     मत छुओ, रोको, पुकारो मत मुझे,
	     जहाँ मैं हूँ वहाँ से मत उतारो-मुझे कुछ मत कहो।
	     -मगर हाँ, काँपे अगर डग तो
	     तुम्हीं, ओ तुम, तुम्हीं-तुम रहो,
	     जो हाथ मेरा गहो।
	इलाहाबाद (गंगा की रेती पर)
	20 दिसम्बर, 1958
	               जब-जब
	     जब-जब कहता हूँ-
	     ओः, तुम कितने बदल गये हो!
	     जब-तब पहचान एक मुझ में जगती है।
	     जब-जब दुहराता हूँ :
	     अब फिर तो ऐसी भूल नहीं हो सकती-
	     तब-तब यह आस्था ही मुझ को ठगती है।
	     क्या कहीं प्यार से इतर
	     ठौर है कोई जो इतना दर्द सँभालेगा?
	     पर मैं कहता हूँ :
	     अरे आज पा गया प्यार मैं, वैसा
	     दर्द नहीं अब मुझ को सालेगा!
	इलाहाबाद
	20 दिसम्बर, 1958
	               हिरोशिमा
	     एक दिन सहसा सूरज निकला
	     अरे क्षितिज पर नहीं,
	     नगर के चौक : धूप बरसी
	     पर अन्तरिक्ष से नहीं,
	     फटी मिट्टी से।
	     छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन
	     सब ओर पड़ी-वह सूरज
	     नहीं उगा था पूरब में, वह
	     बरसा सहसा बीचो-बीच नगर के :
	     काल-सूर्य के रथ के
	     पहियों के ज्यों अरे टूट कर
	     बिखर गये हों दसों दिशा में।
	     कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
	     केवल एक प्रज्वलित क्षण की
	     दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी।
	     फिर?
	     छायाएँ मानव जन की
	     नहीं मिटीं लम्बी हो-हो कर
	     मानव ही सब भाप हो गये।
	     छायाएँ तो अभी लिखी हैं
	     झुलसे हुए पत्थरों पर उजड़ी सड़कों की गच पर।
	     मानव का रचा हुआ सूरज 
	     मानव को भाप बना कर सोख गया।
	     पत्थर पर लिखी हुई यह जली हुई छाया
	     मानव की साखी है।
	दिल्ली-इलाहाबाद-कलकत्ता (रेल में)
	10-12 जनवरी, 1959
	               रश्मि-बाण
	     ‘‘ओ अधीर पथ-यात्री क्यों तुम
	     यहाँ सेतु पर आ कर
	     ठिठक गये?
	     ‘‘नयी नहीं है नदी, इसी के साथ-साथ
	     तुम चलते आये
	     जाने मेरे अनजाने कितने दिन से!
	     नया नहीं है सेतु, पार तुम
	     जाने इस से कितनी बार गये हो
	     इसी उषा के इसी रंग के
	     इतने कोमल, इतने ही उज्ज्वल प्रकाश में।
	     ठिठक गये क्यों
	     यहाँ सेतु पर आ कर
	     ओ अब तक अधीर पथ-यात्री?’’
	     ‘‘मैं? मैं ठिठका नहीं।
	     देखना मेरा दृष्टि-मार्ग से
	     कितना गहरे चलते जाना है
	     किसी अन्तहीन अज्ञात दिशा में!
	     यहीं सेतु के नीचे देख रहा हूँ मैं केवल अपनी छाया को
	     किन्तु दौड़ते, पल-पल बदल रहे
	     लहरीले जीते जल पर!’’
	     ‘‘देख रहे हो छाया?
	     छाया को!
	     अपनी को!
	     क्यों तब मुड़ कर भीतर को
	     अपने को नहीं देखते?
	     रुकना भी तब नहीं पड़ेगा :
	     जल बहता हो-बहता जाए-
	     सेतु हो न हो-दिन हो रजनी,
	     उषःकाल दोपहरी हो, आँधी-कुहरा हो,
	     झुका मेघाडम्बर हो या हो तारों-टँका चँदोवा-
	     तुम्हें न रुकना होगा
	     किसी मोड़ पर, चौराहे पर,
	     किसी सेतु पर!
	     क्यों तुम, ओ पथ-यात्री,
	     ठिठक गये?’’
	     ‘‘मुझे नदी से, पथ से या कि सेतु से,
	     अपनी गति से, यति से, या कि स्वयं अपने से,
	     अपनी छाया छाया से अपनी संगति से
	     कोई नहीं लगाव-दुराव। क्यों कि ये कोई
	     लक्ष्य नहीं मेरी यात्रा के।
	     चौंक गया हूँ मैं क्षण-भर को
	     क्यों कि अभी इस क्षण मैं ने
	     कुछ देख लिया है।
	     ‘‘अभी-अभी जो उजली मछली भेद गयी है
	     सेतु पर खड़े मेरी छाया-(चली गयी है कहाँ!)
	     वही तो-वही, वही तो
	     लक्ष्य रही अवचेतन, अनपहचाना
	     मेरी इस यात्रा का!
	     ‘‘खड़ा सेतु पर हूँ मैं,
	     देख रहा हूँ अपनी छाया,
	     मुझे बोध है नदी वहाँ नीचे बहती है
	     गहरी, वेगवती, प्लव-शीला।
	     ताल उसी की विरल
	     लहरों की गति पर देता है प्रति पल
	     स्पन्दन यह मेरी धमनी का
	     और चेतना को आलोकित किये हुए है
	     असम्पृक्त यह सहज स्निग्ध वरदान धूप का!
	     ‘‘सब में हूँ मैं, सब मुझ में हैं,
	     सब से गुँथा हुआ हूँ, पर जो
	     बींध गया है सत्य मुझे वह
	     वह उजली मछली है 
	     भेद गयी जो मेरी
	     बहुत-बहुत पहचानी
	     बहुत-बहुत अपनी यह
	     बहुत पुरानी छाया।
	     ‘‘रुका नहीं कुछ,
	     सब कुछ चलता ही जाता है,
	     रुका नहीं हूँ मैं भी, खड़ा सेतु पर :
	     देखो-देखो-देखो-
	     फिर आयी वह रश्मि-बाण, दामिनी-द्रुत!-देखो-
	     बेध रहा है मुझे लक्ष्य मेरे बाणों का!’’
	कलकत्ता (एक सेमिनार में बैठे-बैठे)
	15 फरवरी, 1959
	               अन्तःसलिला
	     रेत का विस्तार 
	     नदी जिस में खो गयी
	     कृश-धार :
	     झरा मेरे आँसुओं का भार
	     -मेरा दुख-धन,
	     मेरे समीप अगाध पारावार-
	     उस ने सोख सहसा लिया
	     जैसे लूट ले बटमार।
	     और फिर आक्षितिज
	     लहरीला मगर बेटूट
	     सूखी रेत का विस्तार-
	     नदी जिस में खो गयी
	     कृश-धार।
	     किन्तु जब-जब जहाँ भी जिस ने कुरेदा
	     नमी पायी : और खोदा-
	     हुआ रस-संचार :
	     रिसता हुआ गड्ढा भर गया।
	     यों अजाना पान्थ जो भी क्लान्त आया, रुका ले कर आस,
	     स्वल्पायास से ही शान्त अपनी प्यास
	     इस से कर गया : खींच लम्बी साँस
	     पार उतर गया।
	     अरे, अन्तःसलिल है रेत :
	     अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम
	     फिर भी घाव अपने आप भरती,
	     पड़ी सज्जाहीन धूसर-गौर,
	     निरीह और उदार!
	इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में)
	20 फरवरी, 1959
	               अन्धकार में दीप
	     अन्धकार था :
	     सब कुछ जाना-पहचाना था
	     छुआ कभी न गया हो, फिर भी
	     सब-कुछ की संयति थी,
	     संहति थी,
	     स्वीकृति थी।
	     दिया जलाया : अर्थहीन आकारों की यह
	     अर्थहीनतर भीड़-निरर्थकता का संकुल-
	     निर्जल पारावार न-कारों का यह उमड़ा आया।
	     कहाँ गया वह जिस ने सब-कुछ को
	     ऋत के ढाँचे में था बैठाया?
	मोतीबाग, नयी दिल्ली
	21 फरवरी, 1959
	               टेर रहा सागर
	     जब-जब सागर में मछली तड़पी-
	     तब-तब हम ने उस की गहराई को जाना।
	     जब-जब उल्का गिरा टूट कर-गिरा कहाँ?-
	     हम ने सूने को अन्तहीन पहचाना। जो है, वह है,
	     रहस्य अज्ञेय यही ‘है’ ही है अपने-आप :
	     जो ‘होता’ है, उस का होना ही
	     जिसे जानना हम कहते
	     उस की मर्यादा, माप।
	     जो है, वह अन्तहीन
	     घेरे हैं उस को जिस में
	     जो ‘होता’ है होता है,
	     जिस में ज्ञान हमारा अर्थ टोहता, पाता,
	     बल खाता टटोलता बढ़ता है, खोता है।
	     अर्थ हमारा जितना है, सागर में नहीं
	     हमारी मछली में है
	     सभी दिशा में सागर जिस को घेर रहा है।
	     हम उसे नहीं, वह हम को टेर रहा है।
	नयी दिल्ली
	10 मार्च, 1959
	               चिड़िया ने ही कहा
	     मैं ने कहा कि ‘चिड़िया’ :
	     मैं देखता रहा-
	     चिड़िया चिड़िया ही रही।
	     फिर-फिर देखा फिर-फिर बोला,
	     ‘चिड़िया’।
	     चिड़िया चिड़िया ही रही।
	     फिर-जाने कब-मैं ने देखा नहीं :
	     भूल गया था मैं क्षण भर को तकना-
	     मैं कुछ बोला नहीं-
	     खो गयी थी क्षण भर को स्तब्ध-चकित-सी वाणी,
	     शब्द गये थे बिखर, फटी छीमी से जैसे
	     फट कर खो जाते हैं बीज 
	     अनयना रवहीना धरती में
	     होने को अंकुरित अजाने-तब-जाने कब-
	     चिड़िया ने ही कहा कि ‘चिड़िया’।
	     चिड़िया ने ही देखा वह चिड़िया थी।
	     चिड़िया चिड़िया नहीं रही है तब से :
	     मैं भी नहीं रहा मैं।
	     कवि हूँ! कहना सब सुनना है, स्वर केवल सन्नाटा।
	देहरादून
	18 अगस्त, 1959
	               सरस्वती-पुत्र
	     मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
	     खुले गले से मुखर स्वरों में
	     अति प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम।
	     भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, अल्पक,
	     निर्बाध, अयाने, नाटे, पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
	     बाहर वह खोया-पाया, मैला-उजला
	     दिन-दिन होता जाता वयस्क,
	     दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
	     सुस्पष्ट देखता जाता था;
	     पहचान रहा था रूप,
	     पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
	     पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था :
	     दिन-दिन पर उस की घिग्घी बँधती जाती थी।
	देहरादून
	19 अगस्त, 1959
	               पास और दूर
	     जो पास रहे वे ही तो सब से दूर रहे :
	     प्यार से बार-बार जिन सब ने उठ-उठ
	     हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
	     वे ही दयालु, वत्सल, स्नेही तो सब से क्रूर रहे।
	     जो चले गये ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये।
	     पर जो मिट्टी उन के पग-रोष-भरे खूँदते रहे,
	     फिर अवहेलना से रौंद गये उस को वे ही अनजाने
	     में नयी खाद दे गोड़ गये :
	     उस में वे ही एक अनोखा अंकुर रोप गये।
	     -जो चले गये,जो छोड़ गये
	     जो जड़ें काट, मिट्टी उपाट, चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये
	     वे नहर खोद कर अनायास
	     सागर से सागर जोड़ गये।
	     मिटा गये अस्तित्व, किन्तु वे
	     जीवन मुझ को सौंप गये।
	देहरादून
	24 अगस्त, 1959
	               झील का किनारा
	     झील का निर्जन किनारा
	     और वह सहसा छाये सन्नाटे का
	     एक क्षण हमारा।
	     वैसा सूर्यास्त फिर नहीं दिखा
	     वैसी क्षितिज पर सहमी-सी बिजली
	     वैसी कोई उत्ताल लहर और नहीं आयी
	     न वैसी मदिर बयार कभी चली।
	     वैसी कोई शक्ति अकल्पित और अयाचित
	     फिर हम पर नहीं छायी।
	     वैसा कुछ और छली काल ने
	     हमारे सटे हुए लिलारों पर नहीं लिखा।
	     वैसा अभिसंचित, अभिमन्त्रित,
	     सघनतम संगोपन कल्पान्त
	     दूसरा हम ने नहीं जिया।
	     वैसी शीतल, अनल-शिखा
	     न फिर जली, न चिर-काल पली,
	     न हम से सँभली।
	     या कि अपने को उतना वैसा
	     हमीं ने दुबारा फिर नहीं दिया?
	ढाकुरिया झील, कलकत्ता (मोटर में जाते हुए)
	29 नवम्बर, 1959
	               अन्तरंग चेहरा
	     अरे ये उपस्थित
	     घेरते, घूरते, टेरते
	     लोग-लोग-लोग-लोग
	     जिन्हें पर विधाता ने
	     मेरे लिए दिया नहीं
	     निजी एक अन्तरंग चेहरा।
	     अनुपस्थित केवल वे हेरते, अगोरते
	     लोचन दो
	     निहित निजीपन जिन में
	     सब चेहरों का, ठहरा।
	     वातायन संसृति से मेरे राग-बन्ध के।
	     लोचन दो सम्पृक्ति निविड की 
	     स्फटिक-विमल वापियाँ
	     अचंचल : जल गहरा-गहरा-गहरा!
	शिक्षायतन, कलकत्ता
	29 नवम्बर, 1959
	               पाठक के प्रति कवि
	     मेरे मत होओ
	     पर अपने को स्थगित करो
	     जैसा कि मैं अपने सुख-दुःख का नहीं हुआ
	     दर्द अपना मैं ने खरीदा नहीं  
	     न आनन्द बेचा;
	     अपने को स्थगित किया
	     मैं ने, अनुभव को दिया
	     साक्षी हो, धरोहर हो, प्रतिभू हो
	     जिया।
	मार्च, 1960
	               एक उदास साँझ
	     सूने गलियारों की उदासी।
	     गोखों में पीली मन्द उजास
	     स्वयं मूर्च्छा-सी।
	     थकी हारी साँसें, बासी।
	     चिमटी से जकड़ी-सी नभ की थिगली में
	     तारों की बिखरी सुइयाँ-सी।
	     यादें : अपने को टटोलतीं
	     सहमी, ठिठकी, प्यासी।
	     हाँ, कोई आ कर निश्चय दिया जलाएगा।
	     दिपता-झिपता लुब्धक सूने में कभी उभर आएगा।
	     नंगी काली डाली पर नीरव
	     धुँधला उजला पंछी मँडराएगा।
	     हाँ, साँसों ही साँसों से रीत गया
	     अन्तर भी भर आएगा।
	     पर वह जो बीत गया-जो नहीं रहा-
	     वह कैसे फिर आएगा।
	बम्बई-अदन (सागर-पोत स्टैथेयर्ड पर)
	19 अप्रैल, 1960
	               भीतर जागा दाता
	     मतियाया सागर लहराया।
	     तरंग की पंखयुक्त वीणा पर 
	     पवन ने भर उमंग से गाया।
	     फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
	     किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं-
	     जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलतीं।
	     दूर धुँधला किनारा झूम-झूम आया, डगमगाया किया।
	     मेरे भीतर जगा दाता।
	     बोला : लो, यह सागर मैं ने तुम्हें दिया
	     हरियाली बिछ गयी तराई पर,
	     घाटी की पगडंडी लजाई और ओट हुई-
	     पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गयी।
	     छरहरे पेड़ की नयी रँगीली फुनगी
	     आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी।
	     गेहूँ की हरी बालियों में से कभी राई की उजली,
	     कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयी,
	     कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी-
	     कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी। 
	     मेरे भीतर फिर जागा दाता :
	     और मैं ने फिर नीरव संकल्प किया :
	     लो, यह हरी-भरी धरती-यह सवत्सा कामधेनु-मैं ने तुम्हें दी :
	     आकाश भी तुम्हें दिया :
	     यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
	     ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ, ये मैं ने तुम्हें दीं :
	     आँकी-बाँकी रेखा यह, मेड़ों पर छाग, छौने ये किलोलते,
	     यह तलैया, गलियारा यह, सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते-
	     यह रूप केवल मैं ने देखा, यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैं ने जिया,
	     सब तुम्हें दिया।
	     एक स्मृति से मन पूत हो आया।
	     एक श्रद्धा से आहूत प्राणों ने गाया।
	     एक प्यार का ज्वार दुर्निवार बढ़ आया।
	     मैं डूबा नहीं, उमड़ा-उतराया,
	     फिर भीतर दाता खिल आया।
	     हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया।
	     लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
	     यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
	     यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
	     यह ज्वार, यह प्लवन,
	     यह प्यार, यह अडूब उमड़ना-
	     सब तुम्हें दिया।
	     सब तुम्हें दिया।
	पोर्ट सईद-मार्सेल (सागर-पोत स्टैथेयर्ड पर)
	29 अप्रैल, 1960
	               परायी राहें
	     दूर सागर पार पराये देश की अनजानी राहें।
	     पर शीलवान् तरुओं की
	     गुरु, उदार, पहचानी हुई छाँहें।
	     छनी हुई धूप की सुनहली कनी को बीन,
	     तिनके की लघु अनी मनके-सी बींध, गूँथ, फेरती सुमिरनी,
	     पूछ बैठी : कहाँ, पर कहाँ वे ममतामयी बाँहें?
	ब्रुसेल्स (एक कहवाघर के बाहर खड़े)
	15 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-1
	     यह महाशून्य का शिविर,
	     असीम, छा रहा ऊपर
	     नीचे यह महामौन की सरिता
	     दिग्विहीन बहती है।
	     यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
	     प्रतीकों की परिभाषा
	     आत्मा में जो अपने ही से
	     खुलती रहती है।
	     रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
	     गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
	     अनुभव में एक अतीन्द्रिय,
	     पुरुषों के हर वैभव में ओझल
	     अपौरुषेय मिलता है।
	     मैं एक, शिविर का प्रहरी, भोर जगा
	     अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
	     मैं, मौन-मुखर, सब छन्दों में
	     उस एक साथ अनिर्वच, छन्द-मुक्त को गाता हूँ।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	29 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-2
	     वन में एक झरना बहता है
	     एक नर-कोकिल गाता है
	     वृक्षों में एक मर्मर
	     कोंपलों को सिहराता है,
	     एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे
	     झरे पत्तों को पचाता है।
	     अंकुर उगाता है।
	     मैं सोते के साथ बहता हूँ,
	     पक्षी के साथ गाता हूँ,
	     वृक्षों के कोंपलों के साथ थरथराता हूँ,
	     और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर
	     झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ
	     नये प्राण पाता हूँ।
	     पर सब से अधिक मैं
	     वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ-
	     क्योंकि वही मुझे बतलाता है कि मैं कौन हूँ,
	     जोड़ता है मुझ को विराट् से
	     जो मौन, अपरिवर्त है, अपौरुषेय है
	     जो सब को समोता है।
	     मौन का ही सूत्र किसी अर्थ को मिटाये बिना
	     सारे शब्द क्रमागत सुमिरनी में पिरोता है।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	27 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-3
	     सुनता हूँ गान के स्वर।
	     बहुत-से दूत, बाल-चपल, तार,
	     एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर।
	     मैं वन में हूँ।
	     सब ओर घना सन्नाटा छाया है।
	     तब क्वचित् कहीं मेरे भीतर ही यह कोई संगीत-वृन्द आया है।
	     वन-खंडी की दिशा-दिशा से
	     गूँज-गूँज कर आते हैं आह्वान के स्वर।
	     भीतर अपनी शिरा-शिरा से
	     उठते हैं आह्लाद और सम्मान के स्वर।
	     पीछे, अध-डूबे, अवसान के स्वर।
	     फिर सबसे नीचे, पीछे, भीतर, ऊपर,
	     एक सहस आलोक-विद्ध उन्मेष,
	     चिरन्तन प्राण के स्वर।
	     सुनता हूँ गान के स्वर
	     बहुत से दूत, बाल-चपल, तार;
	     एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	29 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-4
	     किरण जब मुझ पर झरी मैं ने कहा :
	     मैं वज्र कठोर हूँ-पत्थर सनातन।
	     किरण बोली : भला? ऐसा!
	     तुम्हीं को तो खोजती थी मैं :
	     तुम्हीं से मन्दिर गढ़ूँगी
	     तुम्हारे अन्तःकरण से
	     तेज की प्रतिमा उकेरूँगी।
	     स्तब्ध मुझ को किरण ने
	     अनुराग से दुलरा लिया।
	इस्तिना केन्द्र (पेरिस)
	1 जून, 1960
	               चक्रान्त शिला-5
	     एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ
	     दाह खोती लीन होती हैं। 
	     उसी में रवहीन तेरा गूँजता है
	     छन्द : ऋत विज्ञप्त होता है।
	     एक काले घोल की-सी रात
	     जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्तियाँ
	     सब पिघल जातीं ओट पातीं
	     एक स्वप्नातीत, रूपातीत
	     पुनीत गहरी नींद की।
	     उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
	     सहसा खींच लेता-गले मिलता है।
	क्रॉएत्सनारव-कोव्लेंज़ (जर्मनी)
	12 जून, 1960
	               चक्रान्त शिला-6
	     रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से
	     मुझे लगा, मैं सहसा
	     सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ
	     धीमी, रहस, सुरीली,
	     परम गीतिमय।
	     और गीत वह मुझ से बोला, दुर्निवार,
	     अरे, तुम अभी तक नहीं जागे,
	     और वह मुक्त स्रोत-सा सभी ओर बह चला उजाला!
	     अरे, अभागे-कितनी बार भरा, अनदेखे,
	     छलक-छलक बह गया तुम्हारा प्याला?
	     मैं ने उठ कर खोल दिया वातायन-
	     और दुबारा चौंका :
	     वह सन्नाटा नहीं-झरोखे के बाहर
	     ईश्वर गाता था।
	     इसी बीच फिर बाढ़ उषा की आयी।
	ब्रुसेल्स
	15 जून, 1960
	               चक्रान्त शिला-7
	     हवा कहीं से उठी, बही-
	     ऊपर ही ऊपर चली गयी।
	     पथ सोया ही रहा :
	     किनारे के क्षुप चौंके नहीं
	     न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी।
	     अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी।
	     वन-खंडी में सधे खड़े पर
	     अपनी ऊँचाई में खोये-से चीड़
	     जाग कर सिहर उठे सनसना गये।
	     एकस्वर नाम वही अनजाना
	     साथ हवा के गा गये।
	     ऊपर ही ऊपर जो हवा ने गाया
	     देवदारु ने दुहराया,
	     जो हिमचोटियों पर झलका,
	     जो साँझ के आकाश से छलका-वह किस ने पाया
	     जिस ने आयत्त करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
	     आह! वह तो मेरे दे दिये गये हृदय में उतरा,
	     मेरे स्वीकारी आँसू में ढलका :
	     वह अनजाना अनपहचाना ही आया।
	     वह इन सब के-और मेरे-माध्यम से
	     अपने में अपने को लाया, अपने में समाया।
	कासारदेवी, अल्मोड़ा
	8 दिसम्बर, 1960
	               चक्रान्त शिला-8
	     जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकती है
	     उतना ही मैं प्रेत हूँ।
	     जितना रूपाकार-सारमय दीख रहा हूँ
	     रेत हूँ। फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिमा
	     मेरे अनजाने, अनपहचाने अपने ही मनमाने
	     अंकुर उपजाती है-बस, उतना मैं खेत हूँ।
	जमशेदपुर
	26 मार्च, 1961
	               चक्रान्त शिला-9
	     जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा
	     हमें हरसाता हुआ, 
	     -माटी में रीत गया।
	     आह! जो हमें सरसाता है
	     वह छिपा हुआ पानी है
	     हमारा इस जानी-पहचानी
	     माटी के नीचे का।
	     -रीतता नहीं बीतता नहीं।
	ब्रुसेल्स-लन्दन (विमान में)
	15 जून, 1960
	               चक्रान्त शिला-10
	     धुन्ध से ढँकी हुई
	     कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
	     कितनी लघु अंजली हमारी।
	     कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई
	     छाया जब-तब दिख जाती है,
	     उत्कंठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है-
	     बिजली की जलती रेखा-सी
	     कंठ चीरती छाती तक खिंच जाती है।
	     फिर और प्यास तरसाती है, फिर दीठ
	     धुन्ध में फाँक खोजने को टकटकी लगाती है।
	     आतुरता हमें भुलाती है
	     कितनी लघु अंजली हमारी,
	     कितनी गहरी यह धुन्ध-ढँकी वापिका तुम्हारी।
	     फिर भरते हैं ओक,
	     लहर का वृत्त फैल कर हो जाता है ओझल,
	     इसी भाँति युग-कल्प शिलित कर गये हमारे पल-पल
	     -वापी को जो धुन्ध ढँके है, छा लेती है
	     गिरि-गह्वर भी अविरल।
	     किन्तु एक दिन खुल जाएगा
	     स्फटिक-मुकुर-सा निर्मल वापी का तल,
	     आशा का आग्रह हमें किये है बेकल-धुन्ध-ढँकी
	     कितनी गहरी वापिका तुम्हारी,
	     कितनी लघु अंजली हमारी।
	     किन्तु नहीं क्या यही धुन्ध है सदावर्त
	     जिस में नीरन्ध्र तुम्हारी करुणा
	     बँटती रहती है दिन-याम?
	     कभी झाँक जाने वाली छाया ही
	     अन्तिम भाषा-सम्भव-नाम?
	     करुणा धाम! 
	     बीज-मन्त्र यह, सार-सूत्र यह, गहराई का एक यही परिमाण,
	     हमारा यही प्रणाम!
	     धुन्ध-ढँकी कितनी गहरी वापिका तुम्हारी-
	     लघु अंजली हमारी।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	28 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-11
	     तू नहीं कहेगा?
	     मैं फिर भी सुन ही लूँगा।
	     किरण भोर की पहली भोलेपन से बतलावेगी,
	     झरना शिशु-सा अनजान उसे दुहरावेगा,
	     घोंघा गीली-पीली रेती पर धीरे-धीरे आँकेगा,
	     पत्तों का मर्मर कनबतियों में जहाँ-तहाँ फैलावेगा,
	     पंछी की तीखी कूक फरहरे-मढ़े शल्य-सी आसमान पर टाँकेगी,
	     फिर दिन सहसा खुल कर उस को सब पर प्रकटावेगा,
	     निर्मम प्रकाश से सब कुछ पर सुलझा सब कुछ लिख जावेगा।
	     मैं गुन लूँगा। तू नहीं कहेगा?
	     आस्था है, नहीं अनमना हूँगा तब-मैं सुन लूँगा।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	28 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-12
	     अरी ओ आत्मा री,
	     कन्या भोली क्वाँरी
	     महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
	     अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा-
	     सम्भ्रम-अवगुंठित अंगों को
	     उस का ही मृदुतर कौतूहल
	     प्रकाश की किरण छुआएगा।
	     तुझ से रहस्य की बात निभृत में
	     एक वही कर पाएगा तू उतना, वैसा समझेगी वह जैसा जो समझाएगा।
	     तेरा वह प्राप्य, वरद कर उस का तुझ पर जो बरसाएगा।
	     उद्देश्य, उसे जो भावे; लक्ष्य, वही जिस ओर मोड़ दे वह-
	     तेरा पथ मुड़-मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा।
	     तू अपनी भी उतनी ही होगी जितना वह अपनाएगा।
	     ओ आत्मा री तू गयी वरी
	     महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
	     हाँ, छूट चला यह घर, उपवन
	     परिचित-परिगण, मैं भी, आत्मीय सभी,
	     पर खेद न कर, हम थे इतने तक के अपने-
	     हम रचे ही गये थे यथार्थ आधे, आधे सपने-
	     आँखों भर कर ले फेर, और भर अंजलि दे बिखेर
	     पीछे को फूल :
	     -स्मरण के, श्रद्धा के, कृतज्ञता के, सब के
	      हम नहीं पूछते, जो हो, बस मत हो परिताप कभी। 
	      जा आत्मा, जा कन्या-वधुका-उस की अनुगा,
	      वह महाशून्य ही अब तेरा पथ, लक्ष्य, अन्न-जल, पालक, पति,
	      आलोक, धर्म : तुझ को वह एकमात्र सरसाएगा।
	      ओ आत्मा री तू गयी वरी,
	      ओ सम्पृक्ता, ओ परिणीता :
	      महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	27 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-13
	     अकेली और अकेली।
	     प्रियतम धीर, समुद सब रहने वाला;
	     मनचली सहेली।
	     अकेला : वह तेजोमय है जहाँ,
	     दीठ बेबस झुक जाती है;
	     वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूँज
	     वहाँ चुक जाती है।
	     शीतलता उस की एक छुअन भर से
	     सारे रोमांच शिलित कर देती है,
	     मन के द्रुत रथ की अविश्रान्त गति
	     कभी नहीं उस का पदनख तक परिक्रान्त कर पाती है।
	     वह इस लिए अकेला।
	     अकेला : जो कहना है, वह भाषा नहीं माँगता।
	     इस लिए किसी की साक्षी नहीं माँगता,
	     जो सुनना है, वह जहाँ झरेगा तेज-भस्म कर डालेगा-
	     तब कैसे कोई उसे झेलने के हित पर से साझा पालेगा?
	     वह इस लिए निरस्त्र, निर्वसन, निस्साधन, निरीह,
	     इस लिए अकेली।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	30 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-14
	     वह धीरे-धीरे आया
	     सधे पैरों से चला गया।
	     किसी ने उस को छुआ नहीं।
	     उस असंग को अटकाने को
	     कोई कर न उठा।
	     उस की आँखें रहीं देखती सब कुछ
	     सब कुछ को वात्सल्य भाव से सहलाती, असीसती,
	     पर ऐसे, कि अयाना है सब कुछ, शिशुवत् अबोध।
	     अटकी नहीं दीठ वह, जैसे तृण-तरु को छूती प्रभात की धूप
	     दीठ भी आगे चली गयी।
	     आगे, दूर, पार, आगे को, जहाँ और भी एक असंग सधा बैठा है,
	     जिस की दीठ देखती सब कुछ,
	     सब कुछ को सहलाती, दुलराती, असीसती,
	     -उस को भी, शिशुवत् अबोध को मानो-
	     किन्तु अटकती नहीं, चली जाती है आगे।
	     आगे?
	     हाँ, आगे, पर उस से आगे सब आयाम
	     घूम-घूम जाते हैं चक्राकार, उसी तक लौट
	     समाहित हो जाते हैं।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस-आधी रात में जागकर)
	29 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-15
	     जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य,
	     जो अच्छा, मँजा-नया था, सत्य-सार,
	     मैं बीन-बीन कर लाया।
	     नैवेद्य चढ़ाया।
	     पर यह क्या हुआ?
	     सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया, सूख गया, मुरझाया :
	     कुछ भी तो उस ने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया।
	     गोपन लज्जा में लिपटा, सहसा स्वर भीतर से आया :
	     यह सब मन ने किया,
	     हृदय ने कुछ नहीं दिया,
	     थाती का नहीं, अपना हो जिया।
	     इस लिए आत्मा ने कुछ नहीं छुआ।
	     केवल जो अस्पृश्य, अगर्ह्य कह
	     तज आयी मेरे अस्तित्व मात्र की सत्ता,
	     जिस के भय से त्रस्त, ओढ़ती काली घृणा इयत्ता,
	     उतना ही, वही हलाहल उसने लिया।
	     और मुझ को वात्सल्य भरा आशिष दे कर!-
	     ओक भर पिया।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	25 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-16
	     मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा,
	     सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय।
	     मैं सच लिखता हूँ :
	     लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।
	     तू काव्य : सदा-वेष्टित यथार्थ
	     चिर-तनित, भारहीन, गुरु,
	     अव्यय। तू छलता है
	     पर हर छल में
	     तू और विशद, अभ्रान्त,
	     अनूठा होता जाता है।
	इलाहाबाद
	8 जनवरी, 1961
	               चक्रान्त शिला-17
	     न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर
	     शून्य में जा विलय होगा :
	     किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है-
	     उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है।
	     तब फिर शून्य कैसे है-कहाँ है?
	     मुझे फिर आतंक किस का है?
	     शून्य को भजता हुआ भी मैं
	     पराजय बरजता हूँ।
	     चेतना मेरी बिना जाने
	     प्रभा में निमजती है :
	     मैं स्वयं उस ज्योति से अभिषिक्त सजता हूँ।
	इलाहाबाद
	8 जनवरी, 1961
	               चक्रान्त शिला-18
	     अन्धकार में चली गयी है
	     काली रेखा दूर-दूर पार तक।
	     इसी लीक को थामे मैं बढ़ता आया हूँ
	     बार-बार द्वार तक : ठिठक गया हूँ वहाँ :
	     खोज यह दे सकती है मार तक।
	     चलने की है यही प्रतिज्ञा
	     पहुँच सकूँगा मैं प्रकाश से पारावार तक;
	     क्यों चलना यदि पथ है केवल
	     मेरे अन्धकार से सब के अन्धकार तक?
	     -या कि लाँघ कर ही उस को पहुँचा जावेगा
	     सब कुछ धारण करने वाली पारमिता करुणा तक-
	     निर्वैयक्तिक प्यार तक?
	नयी दिल्ली
	1 फ़रवरी, 1961
	               चक्रान्त शिला-19
	     उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त-
	     वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम
	     पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर,
	     जरा-मृत्यु, बनने-मिटने के कल्प, मिलन, बिछुड़न,
	     गति-निगति-विलय के अन्तहीन चक्रान्त।
	     इस धवल शिला पर यह आलोक-स्नात,
	     उजला ईश्वर-योगी, अक्लान्त शान्त,
	     अपनी स्थिर, धीर, मन्द स्मिति से वह सारी लिखत
	     मिटाता जाता है। योगी!
	     वह स्मिति मेरे भीतर लिख दे :
	     मिट जाए सभी जो मिटता है।
	     वह अलम् होगी।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	25 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-20
	     ढूह की ओट बैठे
	     बूढ़े से मैं ने कहा :
	     मुझे मोती चाहिए।
	     उस ने इशारा किया :
	     पानी में कूदो।
	     मैं ने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या?
	     उस ने एक मूठ बालू उठा मेरी ओर कर दी।
	     मैं ने कहा : इस में से मिलेगा मुझे मोती?
	     उस ने एक कंकड़ उठाया और
	     अनमने भाव से मुझे दे मारा।
	     मैं ने बड़ा जतन दिखाते हुए उसे बीन लिया
	     और कहा : यही क्या मोती है-
	     आप का?
	     धीरे-धीरे झुका माथा ऊँचा हुआ,
	     मुड़ा वह मेरी ओर।
	     सागर-सी उस की आँखें थीं
	     सदियों की रेती पर इतिहास की हवाओं की लिखतों-सी
	     नैन-कोरों की झुर्रियाँ।
	     बोला वह : 
	     (कैसी एक खोयी हुई हवा उन बालुओं के ढूहों में से, घासों में से
	     सर्पिल-सी फिसली चली गयी)
	     ‘हाँ : या कि नहीं, क्यों?
	     मिट्टी के भीतर पत्थर था
	     पत्थर के भीतर पानी था
	     पानी के भीतर मेंढक था
	     मेंढक के भीतर अस्थियाँ थीं यानी मिट्टी-पत्थर था,
	     लहू की धार थी यानी पानी था, 
	     श्वास था यानी हवा थी,
	     जीव था यानी मेंढक था।
	     मोती जो चाहते हो
	     उस की पहचान अगर यह नहीं
	     तो और क्या है?’
	स्ख़ेवनिंगेन् (हॉलैंड)
	28 जून, 1960
	               चक्रान्त शिला-21
	     यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही
	     उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी :
	     एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है-
	     जिसे चाहो तो मान लो कहानी।
	     और दे भी क्या सकता हूँ हवाला
	     उस रात का : या प्रमाण अपनी बात का?
	     उस धूपयुक्त कम्पहीन अपने ही ज्वलन के हुताशन के
	     ताप-शुभ्र केन्द्र-वृत्त में उस युग-साक्षात् का?
	     यों कहीं तो था लेखा : पर मैं ने जो दिया, जो पाया,
	     जो पिया, जो गिराया, जो ढाला, जो छलकाया,
	     जो नितारा, जो छाना,
	     जो उतारा, जो चढ़ाया
	     जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा-
	     सब का जो कुछ हिसाब रहा, मैं ने देखा
	     कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया।
	     और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे, मैं तिर गया
	     -ठीक है, मेरा सिर फिर गया।
	     मैं अवाक् हूँ, अपलक हूँ।
	     मेरे पास और कुछ नहीं है
	     तुम भी यदि चाहो तो ठुकरा दो :
	     जानता हूँ कि मैं भी तो ठीकरा हूँ।
	     और मुझे कहने को क्या हो
	     जब अपने तईं खरा हूँ?
	अल्मोड़ा
	18 दिसम्बर, 1960
	               चक्रान्त शिला-22
	     ओ मूर्ति!
	     वासनाओं के विलय
	     अदम आकांक्षा के विश्राम।
	     वस्तु-तत्त्व के बन्धन से छुटकारे के
	     ओ शिलाभूत संकेत, 
	     ओ आत्म-साक्ष्य के मुकुर,
	     प्रतीकों के निहितार्थ।
	     सत्ता-करुणा, युगनद्ध!
	     ओ मन्त्रों के शक्ति-स्रोत,
	     साधना के फल के उत्सर्ग
	     ओ उद्गतियों के आयाम!
	     और निश्छाय, अरूप,
	     अप्रतिम प्रतिमा,
	     ओ निःश्रेयस् स्वयंसिद्ध!
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	29 मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-23
	     व्यथा सब की, निविडतम एकान्त मेरा।
	     कलुष सब का स्वेच्छया आहूत;
	     सद्यधौत अन्तःपूत बलि मेरी।
	     ध्वान्त इस अनसुलझ संसृति के
	     सकल दौर्बल्य का, शक्ति तेरे तीक्ष्णतम, निर्मम, अमोघ
	     प्रकाश-सायक की।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	मई, 1960
	               चक्रान्त शिला-24
	     उसी एकान्त में घर दो
	     जहाँ पर सभी आवें :
	     वही एकान्त सच्चा है
	     जिसे सब छू सकें।
	     मुझ को यही वर दो
	     उसी एकान्त में घर दो 
	     कि जिस में सभी आवें-मैं न आऊँ।
	     नहीं मैं छू भी सकूँ जिस को
	     मुझे ही जो छुए, घेरे समो ले।
	     क्यों कि जो कुछ मुझ से छुआ जा सका-
	     मेरे स्पर्श से चटका-न ही है आसरा, वह छत्र कच्चा है :
	     वही एकान्त सच्चा है
	     जिसे छूने मैं चलूँ तो मैं पलट कर टूट जाऊँ।
	     लौट कर फिर वहीं आऊँ किन्तु पाऊँ
	     जो उसे छू रहा है वह मैं नहीं हूँ :
	     सभी हैं वे। सभी : वह भी जो कि इस का बोध
	     मुझ तक ला सका।
	     उसी एकन्त में घर दो-यही वर दो।
	दिल्ली-देहरादून
	अक्टूबर, 1960
	               चक्रान्त शिला-25
	     सागर और धरा मिलते थे जहाँ
	     सन्धि-रेखा पर मैं बैठा था।
	     नहीं जानता क्यों सागर था मौन
	     क्यों धरा मुखर थी।
	     सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना
	     देखता था सागर को किन्तु धरा को सुनता था।
	     सागर की लहरों में जो कुछ पढ़ता था
	     रेती की लहरों पर लिखता जाता था।
	     नहीं जानता क्यों
	     मैं बैठा था। 
	     पर वह सब तब था जब दिन था।
	     फिर जब धरती से उठा हुआ सूरज
	     तपते-तपते हो जीर्ण गिरा सागर में-
	     तब सन्ध्या की तीखी किरण एक उठ
	     मुझे विद्ध करती सायक-सी
	     उसी सन्धि-रेखा से बाँध अचानक डूब गयी।
	     फिर धीरे-धीरे रात घेरती आयी, फैल गयी
	     फिर अन्धकार में मौन हो गयी धरा,
	     मुखर हो सागर गाने लगा गान।
	     मुझे और कुछ लखने-सुनने
	     पढ़ने-लिखने को नहीं रहा :
	     अपने भीतर गहरे में मैं ने पहचान लिया
	     है यही ठीक। सागर ही गाता रहे
	     धरा हो मौन, यही सम्यक् स्थिति है।
	     यद्यपि क्यों मैं नहीं जानता।
	     फिर मैं सपने से जाग गया
	     हाँ, जाग गया।
	     पर क्या यह जगा हुआ मैं
	     अब से युग-युग
	     उसी सन्धि-रेखा पर वैसा
	     किरण-विद्ध ही बँधा रहूँगा?
	अल्मोड़ा
	27 जून, 1961
	               चक्रान्त शिला-26
	     आँगन के पार द्वार खुले
	     द्वार के पार आँगन।
	     भवन के ओर-छोर
	     सभी मिले-उन्हीं में कहीं खो गया भवन।
	     कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने,
	     पर द्वार के प्रतिहारी को
	     भीतर के देवता ने
	     किया बार-बार पा-लागन।
	नयी दिल्ली
	7 जुलाई, 1961
	               चक्रान्त शिला-27
	     दूज का चाँद-
	     मेरे छोटे घर-कुटीर का दीया
	     तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आँगन में
	     सहमा-सा रख दिया गया।
	नयी दिल्ली
	19 फ़रवरी, 1962
	               बना दे, चितेरे
	     बना दे, चितेरे,
	     मेरे लिए एक चित्र बना दे।
	     पहले सागर आँक :
	     विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला,
	     ऊपर हलचल से भरा,
	     पवन के थपेड़ों से आहत,
	     शत-शत तरंगों से उद्वेलित,
	     फेनोमियों से टूटा हुआ, किन्तु प्रत्येक टूटने में
	     अपार शोभा लिये हुए,
	     चंचल, उत्सृष्ट-जैसे जीवन।
	     हाँ, पहले सागर आँक :
	     नीचे अगाध, अथाह,
	     असंख्य दबावों, तनावों, खींचों और मरोड़ों को
	     अपनी द्रव एकरूपता में समेटे हुए,
	     असंख्य गतियों और प्रवाहों को
	     अपने अखंड स्थैर्य में समाहित किये हुए,
	     स्वायत्त, अचंचल,
	     -जैसे जीवन।
	     सागर आँक कर फिर आँक एक उछली हुई मछली :
	     ऊपर अधर में
	     जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा है
	     तरंगोर्मियाँ हैं, हलचल और टूटन है
	     द्रव है, दबाव है,
	     और उसे घेरे हुए वह अविकल सूक्ष्मता है
	     जिस में सब आन्दोलन स्थिर और समाहित होते हैं;
	     ऊपर अधर में
	     हवा का एक बुलबुला भर पीने को
	     उछली हुई मछली जिस की मरोड़ी हुई देह-वल्ली में
	     उस की जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है।
	     जैसे तडिल्लता में दो बादलों के बीच के खिंचाव सब कौंध जाते हैं-
	     वज्र अनजाने, अप्रसूत, असन्धीत सब गल जाते हैं।
	     उन प्राणों का एक बुलबुला भर पी लेने को-
	     उस अनन्त नीलिमा पर छाये रहते ही
	     जिस में वह जनमी है, जियी है, पली है, जिएगी,
	     उस दूसरी अनन्त प्रगाढ़ नीलिमा की ओर
	     विद्युल्लता की कौंध की तरह
	     अपनी इयत्ता की सारी आकुल तड़प के साथ उछली हुई
	     एक अकेली मछली।
	     बना दे, चितेरे,
	     यह चित्र मेरे लिए आँक दे।
	     मिट्टी की बनी, पानी से सिंची, प्राणाकाश की प्यासी
	     उस अन्तहीन उदीषा को
	     तू अन्तहीन काल के लिए फलक पर टाँक दे-
	     क्यों कि यह माँग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के
	     एक जिस बुलबुले की ओर मैं हूँ उदग्र, वह
	     अन्तहीन काल तक मुझे खींचता रहे :
	     मैं उदग्र ही बना रहूँ कि-जाने कब-
	     वह मुझे सोख ले।
	पिएर क्वि वी’र (फ्रांस)
	30 मई, 1960
	               झर गये तुम्हारे पात
	     झर गये तुम्हारे पात
	     मेरी आशा नहीं झरी।
	     जर गये तुम्हारे दिये अंग
	     मेरी ही पीड़ा नहीं जरी।
	     मर गयी तुम्हारी सिरजी
	     जीवन-रसना-शक्ति-जिजीविषा मेरी नहीं मरी।
	     टर गये मेरे उद्यम, साहस-कर्म,
	     तुम्हारी करुणा नहीं टरी!
	सालेव शिखर की वनखंडी (जेनेवा)
	3 जून, 1960
	               पहचान
	     तुम वही थीं :
	     किन्तु ढलती धूप का कुछ खेल था-
	     ढलती उमर के दाग़ उस ने धो दिये थे। 
	     भूल थी पर बन गयी पहचान-
	     मैं भी स्मरण से नहा आया।
	जेनेवा (स्विट्ज़रलैंड)
	4 सितम्बर, 1960
	               सूनी-सी साँझ एक
	     सूनी-सी साँझ एक दबे पाँव मेरे कमरे में आयी थी।
	     मुझ को भी वहाँ देख थोड़ा सकुचायी थी।
	     तभी मेरे मन में यह बात आयी थी
	     कि ठीक है, यह अच्छी है,
	     उदास है, पर सच्ची है :
	     इसी की साँवली छाँह में कुछ देर रहूँगा।
	     इसी की साँस की लहर पर बहूँगा।
	     चुपचाप इसी के नीरव तलवों की
	     लाल छाप देखता कुछ नहीं कहूँगा।
	     पर उस सलोनी के पीछे-पीछे
	     घुस आयीं बिजली की बत्तियाँ
	     बेहया धड़-धड़ गाड़ियों की :
	     मानुषों की खड़ी-खड़ी बोलियाँ।
	     वह रुकी तो नहीं, आयी तो आ गयी, 
	     पर साथ-साथ मुरझा गयी
	     उस की पहले ही मद्धिम अरुणाली पर
	     घुटन की एक स्याही-सी छा गयी।
	     -सोचा था कुछ नहीं कहूँगा : कुछ नहीं कहा :
	     पर मेरे उस भाव का, संकल्प का बस, इतना ही रहा।
	     यह नहीं वह न कहना था
	     जो कि उस को उदास पर सच्ची लुनाई में बहना था
	     जो अपने ही अपने न रहने को
	     तद्गत तो सहना था।
	     यह तो बस रुँध कर चुप रहना था।
	     यों न जाने कब कहाँ
	     वह साँझ ओझल हो गयी।
	     और मेरे लिए यह सूने न रहने की
	     रीते न होने की
	     बाँझ अनुकम्पा समाज को 
	     कितनी बोझिल हो गयी!
	अल्मोड़ा
	दिसम्बर, 1960
	               सब के लिए-मेरे लिए
	     बोलना सदा सब के लिए और मीठा बोलना।
	     मेरे लिए कभी सहसा थम कर बात अपनी तोलना
	     और फिर मौन धार लेना।
	     जागना सभी के लिए सब को मान कर अपना
	     अविश्राम उन्हें देना रचना उदास, भव्य कल्पना।
	     मेरे लिए कभी एक छोटी-सी झपकी भर लेना-
	     सो जाना : देख लेना
	     तडिद्-बिम्ब सपना। 
	     कौंध-भर उस के हो जाना।
	अल्मोड़ा
	दिसम्बर, 1960
	               बाहर-भीतर
	     बाहर सब ओर तुम्हारी/स्वच्छ उजली मुक्त सुषमा फैली है
	     भीतर पर मेरी यह चित्त-गुहा/कितनी मैली-कुचैली है।
	     स्रष्टा मेरे, तुम्हारे हाथ में तुला है, और/ध्यान में मैं हूँ, मेरा भविष्य है,
	     जब कि मेरे हाथ में भी, ध्यान में भी, थैली है!
	इलाहाबाद
	12 जनवरी, 1961
	               अनुभव-परिपक्व
	     माँ, हम नहीं मानते-
	     अगली दीवाली पर मेले से
	     हम वह गाने वाला टीन का लट्टू
	     लेंगे ही लेंगे-नहीं, हम नहीं जानते-
	     हम कुछ नहीं सुनेंगे।
	     -कल गुड़ियों का मेला है, माँ।
	     मुझे एक-दो पैसे वाली
	     काग़ज़ की फिरकी तो ले देना।
	     अच्छा मैं लट्टू नहीं माँगता-
	     तुम दो पैसे दे देना।
	     -अच्छा, माँ, मुझे खाली मिट्टी दे दो-
	     मैं कुछ नहीं माँगूँगा :
	     मेले जाने की हठ नहीं ठानूँगा।
	     जो कहोगी मानूँगा।
	लखनऊ
	6 मार्च, 1961
	               एक प्रश्न
	     जिन आँखों को तुम ने गहरा बतलाया था
	     उन से भर-भर मैं ने
	     रूप तुम्हारा पिया।
	     जिस काया को तुम रहस्यार्थ से भरी बताते थे
	     उस के रोम-रोम से मैं ने
	     गान तुम्हारा किया! 
	     जो प्यार-कहा था तुम ने ही-है सार-तत्त्व जीवन का,
	     वही अनामय, निर्विकार, चिर सत्त्व
	     मैं ने तुम्हें दिया।
	     यों तुम से पायी ज्योति-शिखा के शुभ्र वृत्त में
	     मैं ने अपना पल-पल जलता जीवन जिया :
	     पर तुमने-तुम, गुरु, सखा, देवता!-
	     तुम ने क्या किया!
	इलाहाबाद
	10 मार्च, 1961
	               अँधेरे अकेले घर में
	     अँधेरे अकेले घर में
	     अँधेरी अकेली रात।
	     तुम्हीं ने लुक-छिप कर
	     आज न जाने कितने दिन बाद
	     तुम से मेरी मुलाकात।
	     और इस अकेले सन्नाटे में
	     उठती है रह-रह कर
	     एक टीस-सी अकस्मात्
	     कि कहने को तुम्हें इस
	     इतने घने अकेले में
	     मेरे पास कुछ भी नहीं है बात। 
	     क्यों नहीं पहले कभी मैं इतना गूँगा हुआ? 
	     क्यों नहीं प्यार के सुध-भूले क्षणों में
	     मुझे इस तीखे ज्ञान ने छुआ?
	     कि खो देना तो देना नहीं होता-
	     भूल जाना और, उत्सर्ग है और बात :
	     कि जब तक वाणी हारी नहीं
	     और वह हार मैं ने अपने में पूरी स्वीकारी नहीं,
	     अपनी भावना, संवेदना भी वाणी नहीं-
	     तब तक वह प्यार भी
	     निरा संस्कार है, संस्कारी नहीं।
	     हाय, कितनी झीनी ओट में
	     झरते रहे आलोक के सोते अवदात-
	     और मुझे घेरे रही अँधेरे अकेले घर में
	     अँधेरी अकेली रात।
	नयी दिल्ली
	29 मार्च, 1961
	               असाध्य वीणा
	     आ गये प्रियंवद! केशकम्बली! गुफा-गेह!
	     राजा ने आसन दिया। कहा :
	     ‘‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।
	     भरोसा है अब मुझ को
	     साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!’’
	     लघु संकेत समझ राजा का
	     गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा,
	     साधक के आगे रख उस को, हट गये।
	     सभी की उत्सुक आँखें
	     एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
	     प्रियंवद के चेहरे पर।
	     ‘‘यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
	     -घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी-
	     बहुत समय पहले आयी थी।
	     पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
	     किन्तु सुना है
	     वज्रकीर्ति ने मन्त्रपूत जिस
	     अति प्राचीन किरीट-तरु से इसे गढ़ा था-
	     उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
	     कन्धों पर बादल सोते थे,
	     उस की करि-शुंडों-सी डालें
	     हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
	     कोटर में भालू बसते थे,
	     केहरि उस के वल्कल से कन्धे खुजलाने आते थे।
	     और-सुना है-जड़ उस की जा पहुँची थी पाताल-लोक,
	     उस की ग्रन्थ-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
	     उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
	     सारा जीवन इसे गढ़ा :
	     हठ-साधना यही थी उस साधक की-
	     वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।’’
	     राजा रुके साँस लम्बी ले कर फिर बोले :
	     ‘‘मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
	     सब की विद्या हो गयी अकारथ, दर्प चूर,
	     कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
	     अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
	     पर मेरा अब भी है विश्वास
	     कृच्छ्र-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
	     वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
	     इसे जब सच्चा-स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
	     तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
	     वज्रकीर्ति की वीणा,
	     यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
	     सब उदग्र, पर्युत्सुक,
	     जन-मात्र प्रतीक्षमाण!’’
	     केशकम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
	     धरती पर चुप-चाप बिछाया।
	     वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच,
	     कर के प्रणाम,
	     अस्पर्श छुअन से छुए तार।
	     धीरे बोला : ‘‘राजन्! पर मैं तो
	     कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-
	     जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
	     वज्रकीर्ति!
	     प्राचीन किरीटी-तरु!
	     अभिमन्त्रित वीणा!
	     ध्यान-मात्र इन का तो गद्गद विह्वल कर देने वाला है!’’
	     चुप हो गया प्रियंवद।
	     सभा भी मौन हो रही।
	     वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
	     धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
	     सभा चकित थी-अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
	     केशकम्बली अथवा हो कर पराभूत
	     झुक गया वाद्य पर?
	     वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
	     पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
	     मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-
	     नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था।
	     सघन निविड में वह अपने को
	     सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को।
	     कौन प्रियंवद है कि दम्भ कर
	     इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
	     कौन बजावे यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भर की साधना रही?
	     भूल गया था केशकम्बली राज-सभा को :
	     कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
	     जिस में साक्षी के आगे था जीवित वही किरीटी-तरु
	     जिस की जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
	     जिस के कन्धों पर बादल सोते थे
	     और कान में जिस के हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य।
	     सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
	     नीरव एकालाप प्रियंवद।
	     ‘‘ओ विशाल तरु!
	     शत-सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिस का नित रूप सँवारा,
	     कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
	     दिन भर भौंरे कर गये गुंजरित,
	     रातों में झिल्ली ने
	     अनथक मंगल-गान सुनाये,
	     साँझ-सवेरे अनगिन
	     अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा-काकलि
	     डाली-डाली को कँपा गयी-
	     ओ दीर्घकाय!
	     ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
	     तात, सखा, गुरु, आश्रय,
	     त्राता महच्छाय,
	     ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
	     वृन्दगान के मूर्त रूप,
	     मैं तुझे सुनूँ,
	     देखूँ, ध्याऊँ
	     अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :
	     कहाँ साहस पाऊँ 
	     छू सकूँ तुझे!
	     तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
	     किस स्पर्धा से हाथ करें आघात
	     छीनने को तारों से
	     एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
	     स्वयं न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रच गये!
	     ‘‘नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे,
	     किन्तु मैं ही तो तेरी गोद बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
	     ओ तरु-तात! सँभाल मुझे,
	     मेरी हर किलक
	     पुलक में डूब जाय :
	     मैं सुनूँ, गुनूँ,
	     विस्मय से भर आँकें
	     तेरे अनुभव का एक-एक अन्तःस्वर
	     तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-गा तू :
	     तेरी लय पर मेरी साँसें
	     भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पाएँ।
	     ‘‘गा तू!
	     यह वीणा रखी है : तेरा अंग-अपंग!
	     किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
	     रस-विद्,
	     तू गा :
	     मेरे अँधियारे अन्तस् में आलोक जगा
	     स्मृति का श्रुति का-
	     ‘‘हाँ, मुझे स्मरण है :
	     बदली-कौंध-पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट।
	     घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
	     चौंके खग-शावक की चिहुँक।
	     शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
	     द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
	     कुहरे में छन कर आती
	     पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
	     गड़रियों की अनमनी बाँसुरी।
	     कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
	     ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल,
	     कि झरते-झरते मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
	     भरे शरद् के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
	     कूँजों का क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
	     पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
	     चीड़-वनों में गन्ध-अन्ध उन्मद पतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
	     जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
	     झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
	     संसृति की साँय-साँय।
	     हाँ, मुझे स्मरण है :
	     दूर पहाड़ों से काले मेघों की बाढ़
	     हाथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ।
	     घरघराहट चढ़ती बहिया की।
	     रेतीले कगार का गिरना छप्-छड़ाप।
	     झंझा की फुफकार, तप्त,
	     पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
	     ओले की कर्री चपत।
	     जमे पाले से तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
	     ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।
	     हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुप-चाप।
	     घाटियों में भरती
	     गिरती चट्टानों की गूँज-
	     काँपती मन्द्र गूँज-अनुगूँज-साँस खोयी-सी, धीरे-धीरे नीरव।
	     ‘‘मुझे स्मरण हैः
	     हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट ताल पर
	     बँधे समय वन-पशुओं की नानाविध आतुर-तृप्त पुकारें :
	     गर्जन, घुर्घुर, चीख़, भूँक, हुक्का, चिचियाहट।
	     कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुवत धावित
	     जल-पंछी की चाप।
	     थाप दादुर की चकित छलाँगों की।
	     पन्थी के घोड़े की टाप अधीर।
	     अचंचल धीर थाप भैसों के भारी खुर की।
	      ‘‘मुझे स्मरण है :
	     उझक क्षितिज से
	     किरण भोर की पहली
	     जब तकती है ओस-बूँद को
	     उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
	     और दुपहरी में जब घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
	     मोमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार-
	     उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
	     और साँझ को जब तारों की तरल कँपकँपी
	     स्पर्शहीन झरती है-मानो नभ में तरल नयन ठिठकी 
	     निःसंख्य सवत्सा युवती माताओं के आशीर्वाद-
	     उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
	     ‘‘मुझे स्मरण है : और चित्र प्रत्येक
	     स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझ को।
	     सुनता हूँ मैं पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझ को मुझ से सोख-
	     वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ।...
	     मुझे स्मरण है-
	     पर मुझ को मैं भूल गया हूँ :
	     सुनता हूँ मैं-
	     पर मैं मुझ से परे, शब्द में लीयमान।
	     ‘‘मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!
	     ओ रे तरु! ओ वन!
	     ओ स्वर-संभार!
	     नाद-मय संसृति!
	     ओ रस-प्लावन!
	     मुझे क्षमा कर-भूल अकिंचनता को मेरी-
	     मुझे ओट दे-ढँक ले-छा ले-
	     ओ शरण्य!
	     मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!
	     आ, मुझे भुला,
	     तू उतर बीन के तारों में
	     अपने से गा
	     अपने को गा-
	     अपने खग-कुल को मुखरित कर
	     अपनी छाया में पले मृगों को चौकड़ियों को ताल बाँध,
	     अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
	     अपने जीवन-संचय को कर छन्दयुक्त,
	     अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!
	     तू गा, तू गा-
	     तू सन्निधि पा-तू खो
	     तू आ-तू हो-तू गा। तू गा!’’
	     राजा जागे।
	     समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था-
	     काँपी थी उँगलियाँ।
	     अलग अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा : 
	     किलक उठे थे स्वर-शिशु।
	     नीरव पद रखता जालिक मायावी
	     सधे करों से धीरे-धीरे-धीरे
	     डाल रहा था जाल हेम-तारों का।
	     हसा वीणा झनझना उठी-
	     संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी-
	     रोमांच एक बिजली-सा सब के तन में दौड़ गया।
	     अवतरित हुआ संगीत
	     स्वयम्भू जिस में सोता है अखंड
	     ब्रह्म का मौन
	     अशेष प्रभामय।
	     डूब गये सब एक साथ।
	     सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।
	     राजा ने अलग सुना :
	     जय देवी यशःकाय
	     वरमाल लिये गाती थी मंगल-गीत,
	     दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,
	     राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फूल सिरिस का
	     ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
	     सभी पुराने लुगड़े से झर गये, निखर आया था जीवन-कांचन
	     धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा।
	     रानी ने अलग सुना :
	     छँटती बदली में एक कौंध कह गयी-
	     तुम्हारी ये मणि-माणक, कंठहार, पट-वस्त्र,
	     मेखला-किंकिणि-
	     सब अन्धकार के कण हैं ये! आलोक एक है
	     प्यार अनन्य! उसी की
	     विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
	     थिरक उसी की छाती पर उस में छिप कर सो जाती है
	     आश्वस्त, सहज विश्वास-भरी।
	     रानी उस एक प्यार को साधेगी।
	     सब ने भी अलग-अलग संगीत सुना।
	     इस को वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का।
	     उस को आतंक-मुक्ति का आश्वासन।
	     इस को वह भरी तिजोरी में सोने की खनक।
	     उसे बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू।
	     किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
	     किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।
	     एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन-
	     एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की।
	     एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल, ग्राहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ,
	     चौथे को मन्दिर की ताल-युक्त घंटा-ध्वनि।
	     और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
	     और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक।
	     बटिया पर चमरौधे की रुँधी चाप सातवें के लिए-
	     और आठवें को कुलिया की कटी मेड़ से बहते जल की छुल-छुल।
	     इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुमरू की।
	     उसे युद्ध का ढोल।
	     इसे संझा-गोधूली की लघु टुन-टुन-
	     उसे प्रलय का डमरू-नाद।
	     इस को जीवन की पहली अँगड़ाई
	     पर उस को महाजृम्भ विकराल काल!
	     सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे-
	     हो रहे वशंवद, स्तब्ध :
	     इयत्ता सब की अलग-अलग जागी,
	     संघीत हुई,
	     पा गयी विलय।
	     वीणा फिर मूक हो गयी।
	     साधु! साधु!!
	     राजा सिंहासन से उतरे-
	     रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
	     ‘‘हे स्वरजित्! धन्य! धन्य!’’
	     संगीतकार वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक-मानो
	     गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
	     हट जाय, दीठ से दुलराती-
	     उठ खड़ा हुआ।
	     बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
	     बोला :
	    ‘‘श्रेय नहीं कुछ मेरा :
	     मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-
	     वीणा के माध्यम से अपने को मैं ने
	     सब कुछ को सौंप दिया था-
	     सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
	     न वीणा का था :
	     वह तो सब कुछ की तथता थी
	     महाशून्य वह महामौन
	     अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
	     जो शब्दहीन सब में गाता है।’’ 
	     नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली।
	     ले कर कम्बल गेह-गुफा को चला गया।
	     उठ गयी सभा। सब अपने-अपने काम लगे।
	     युग पलट गया।
	     प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
	     मौन हुई।
	अल्मोड़ा
	18-20 जून, 1961
	               साँस का पुतला
	     वासना को बाँधने को
	     तूमड़ी जो स्वर-तार बिछाती है-
	     आह! उसी में कैसी एकान्त निविड
	     वासना थरथराती है!
	     तभी तो साँप की कुंडली हिलती नहीं-
	     फन डोलता है।
	     कभी रात मुझे घेरती है,
	     कभी मैं दिन को टेरता हूँ,
	     कभी एक प्रभा मुझे हेरती है,
	     कभी मैं प्रकाश-कण बिखेरता हूँ।
	     कैसे पहचानूँ कब प्राण-स्वर मुखर है,
	     कब मन बोलता है
	     साँस का पुतला हूँ मैं :
	     जरा से बँधा हूँ और
	     मरण को दे दिया गया हूँ :
	     पर एक जो प्यार है न, उसी के द्वारा
	     जीवन्मुक्त मैं किया गया हूँ।
	     काल की दुर्वह गदा को एक
	     कौतुक-भरा बाल क्षण तोलता है!
	दिल्ली-पठानकोट (रेल में)
	24 जून, 1961
	               पलकों का कँपना
	     तुम्हारी पलकों का कँपना।
	     तनिक-सा चमक, खुलना, फिर झँपना।
	     तुम्हारी पलकों का कँपना।
	     मानो दीखा तुम्हें लजीली किसी कली के
	     खिलने का सपना।
	     तुम्हारी पलकों का कँपना।
	     सपने की एक किरण मुझ को दो ना,
	     है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना।
	     और सब समय पराया है।
	     बस उतना क्षण अपना।
	     तुम्हारी पलकों का कँपना।
	दिल्ली-पठानकोट
	25 जुलाई, 1961
	               होने का सागर
	     सागर जो गाता है
	     वह अर्थ से परे है-
	     वह तो अर्थ को टेर रहा है।
	     हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है,
	     जो अर्थ हमें बहलाता (कि सहलाता) है
	     वह सागर में नहीं,
	     हमारी मछली में है
	     जिसे सभी दिशा मे
	     सागर घेर रहा है।
	     आह ‘यह होने का अन्तहीन, अर्थहीन सागर
	     जो देता है सीमाहीन अवकाश
	     जानने की हमारी गति को :
	     आह, यह जीवित की लघु, विद्युद्-द्रुत सोन-मछली
	     केवल मात्र जिस की बल खाती गति से
	     हम सागर को नापते क्या, पहचानते भी हैं!
	कूर्शेवेल, सैवाय
	12 अगस्त, 1961
	               उधार
	     सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गयी थी
	     और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी।
	     मैं ने धूप से कहा : मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार?
	     चिड़िया से कहा : थोड़ी मिठास उधार दोगी?
	     मैं ने घास की पत्ती से पूछा : तनिक हरियाली दोगी-
	     तिनके की नोक-भर?
	     शंखपुष्पी से पूछा : उजास दोगी-
	     किरण की ओक-भर?
	     मैं ने हवा से माँगा : थोड़ा खुलापन-बस एक प्रश्वास,
	     लहर से : एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
	     मैं ने आकाश से माँगी
	     आँख की झपकी-भर असीमता-उधार।
	     सब से उधार माँगा, सब ने दिया।
	     यों मैं जिया और जीता हूँ
	     क्यों कि यही सब तो है जीवन-
	     गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
	     गन्धवाही मुक्त खुलापन,
	     लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
	     और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का :
	     ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।
	     रात के अकेले अन्धकार में
	     सपने से जागा जिस में
	     एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर
	     मुझ से पूछा था : ‘‘क्यों जी,
	     तुम्हारे इस जीवन के
	     इतने विविध अनुभव हैं
	     इतने तुम धनी हो,
	     तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे उधार जिसे मैं
	     सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा-
	     और वह भी सौ-सौ बार गिन के-
	     जब-जब मैं आऊँगा?’’
	     मैं ने कहा : प्यार? उधार?
	     स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
	     अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
	     उस अनदेखे अरूप ने कहा : ‘‘हाँ,
	     क्यों कि ये ही सब चीजें तो प्यार हैं-
	     यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
	     यह असमंजस, अचकचाहट,
	     आर्त अनुभव, यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
	     विरह-व्यथा, यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि
	     जो मेरा है वही ममेतर है।
	     यह सब तुम्हारे पास है
	     तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार-इस एक बार-
	     मुझे जो चरम आवश्यकता है।’’
	     उस ने यह कहा,
	     पर रात के घुप अँधेरे में
	     मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ :
	     अनदेखे अरूप को
	     उधार देते मैं डरता हूँ :
	     क्या जाने यह याचक कौन है!
	कूर्शेवेल, सैवाय
	13 अगस्त, 1961
	               निरस्त्र
	     कोहरा था,
	     सागर पर सन्नाटा था :
	     पंछी चुप थे।
	     महाराशि से कटा हुआ
	     थोड़ा-सा जल बन्दी हो
	     चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
	     निश्चल था-पारदर्श।
	     प्रस्तर-चुम्बी बहुरंगी
	     उद्भिज-समूह के बीच
	     मुझे सहसा-दीखा
	     केकड़ा एक : आँखें ठंडी
	     निष्प्रभ निष्कौतूहल
	     निर्निमेष जाने
	     मुझ में कौतुक जागा
	     या उस प्रसृत सन्नाटे में
	     अपना रहस्य यों खोल
	     आँख-भर तक लेने का साहस;
	     मैं ने पूछा : क्यों जी,
	     यदि मैं तुम्हें बता दूँ
	     मैं करता हूँ प्यार किसी को-
	     तो चौंकोगे?
	     ये ठंडी आँखें झपकेंगी
	     औचक?
	     उस उदासीन ने सुना नहीं :
	     आँखों में वही बुझा सूनापन जमा रहा।
	     ठंडे नीले लोहू में दौड़ी नहीं
	     सनसनी कोई।
	     पर अलक्ष्य गति से वह
	     कोई लीक पकड़ धीरे-धीरे
	     पत्थर की ओट किसी कोटर में
	     सरक गया। 
	     यों मैं अपने रहस्य के साथ
	     रह गया सन्नाटे से घिरा
	     अकेला अप्रस्तुत
	     अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र,
	     निष्कवच, वध्य।
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	अक्टूबर, 1962
	               जैसे जब तारा देखा
	     क्या दिया-लिया?
	     जैसे जब तारा देखा
	     सद्यःउदित-शुक्र, स्वाति, लुब्धक-
	     कभी क्षण-भर यह बिसर गया
	     मैं मिट्टी हूँ;
	     जब से प्यार किया,
	     जब भी उभरा यह बोध
	     कि तुम प्रिय हो-
	     सद्यःसाक्षात् हुआ-
	     सहसा देने के अहंकार
	     पाने की ईहा से
	     होने के अपनेपन
	     (एकाकीपन!) से उबर गया।
	     जब-जब यों भूला, धुल कर मँज कर
	     एकाकी से एक हुआ।
	     जिया।
	10 दिसम्बर, 1962
	               गृहस्थ
	     कि तुम मेरा घर हो
	     यह मैं उस घर में रहते-रहते
	     बार-बार भूल जाता हूँ
	     या यों कहूँ कि याद ही कभी-कभी करता हूँ :
	     (जैसे कि यह कि मैं साँस लेता हूँ :)
	     पर यह कि तुम उस मेरे घर की
	     एक मात्र खिड़की हो
	     जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को,
	     प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ,
	     -जिस में से मैं रूप, सुर, बास रस
	     पाता और पीता हूँ-
	     जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ,
	     -जिस में से ही
	     मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ
	     -जिस में से उलीच कर मैं
	     अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ-
	     यह मैं कभी नहीं भूलता :
	     क्यों कि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर
	     मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ-
	     कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ-
	     और तुम-तुम्हीं मेरे वह समर्थ हाथ हो
	     तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने
	     मेरे साथ हो।
	नयी दिल्ली
	16 दिसम्बर, 1962
	               जीवन
	     चाबुक खाये
	     भागा जाता सागर-तीरे
	     मुँह लटकाये
	     मानो धरे लकीर जमे खारे झागों की-
	     रिरियाता कुत्ता यह पूँछ लड़खड़ाती टाँगों के बीच दबाये।
	     कटा हुआ जाने-पहचाने सब कुछ से
	     इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
	     और अजाने, अनपहचाने सब से,
	     दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन उस ठंडे पारावार से!
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	1962
	               समय क्षण-भर थमा
	     समय क्षण-भर थमा-सा :
	     फिर तोल डैने
	     उड़ गया पंछी क्षितिज की ओर :
	     मद्धिम लालिमा ढरकी अलक्षित।
	     तिरोहित हो चली ही थी कि सहसा
	     फूट तारे ने कहा : रे समय,
	     तू क्या थक गया?
	     रात का संगीत फिर
	     तिरने लगा आकाश में।
	हानोलुलु, इवाई
	3 जनवरी, 1963
	               सुनी हैं साँसें
	     हम सदा जो नहीं सुनते
	     साँस अपनी या कि अपने हृदय की गति-
	     वह अकारण नहीं।
	     इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना।
	     स्वयं अपने से या कि अन्तःकरण में स्थित एक से।
	     उपस्थित दोनों सदा हैं,
	     है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम
	     स्वयं अपने सामने आने नहीं देते।
	     ओट थोड़ी बने रहना ही भला है-
	     देवता से और अपने-आप से।
	     किन्तु मैं ने सुनी है साँसें
	     सुनी है हृदय की धड़कन
	     और, हाँ, पकड़ा गया हूँ
	     औचक, बार-बार।
	     देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा :
	     पर जो दूसरा होता-स्वयं मैं-
	     सदा मैं ने यही पाया है कि वह
	     तुम हो : कि जो-जो सुन पड़ी है साँस,
	     तुम्हारे बिम्ब को छूती बही है :
	     जो धड़कन हृदय की
	     चेतना में फूट आयी है हठीली
	     नये अंकुर-सी-तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है।
	     यह लो अभी फिर सुनने लगा मैं
	     साँस-अभी कुछ गरमाने लगी-सी-
	     हृदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा
	     लो पकड़ देता हूँ-
	     सँभालो।
	     साँस स्पन्दन ध्यान
	     और मेरा मुग्ध यह स्वीकार-
	     सब
	     (उस अजाने या अनामा देवता के बाद)
	     तुम्हारे हैं।
	1963
	               उलाहना
	     नहीं, नहीं, नहीं!
	     मैं ने तुम्हें आँखों की ओट किया
	     पर क्या भुलाने को?
	     मैं ने अपने दर्द को सहलाया
	     पर क्या उसे सुलाने को?
	     मेरा हर मर्माहत उलाहना
	     साक्षी हुआ कि मैं ने अन्त तक तुम्हें पुकारा!
	     ओ मेरे प्यार! मैं ने तुम्हें बार, बार-बार असीसा
	     तो यों नहीं कि मैं ने विछोह को कभी भी स्वीकारा!
	     नहीं, नहीं, नहीं!
	3 मार्च, 1964
	               सन्ध्या-संकल्प
	     यह सूरज का जपा-फूल
	     नैवेद्य चढ़ चला सागर-हाथों
	     अम्बा तिमिरमयी को : रुको साँस-भर,
	     फिर मैं यह पूजा-क्षण तुम को दे दूँगा।
	     क्षण अमोघ है, इतना मैं ने
	     पहले भी पहचाना है
	     इसलिए साँझ को नश्वरता से नहीं बाँधता।
	     किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
	     धर्म : यह लोकालय में
	     धीरे-धीरे जान रहा हूँ
	     (अनुभव क सोपान!)
	     और दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
	     यह एकोन्मुख तिरोभाव-इतना-भर मेरा एकान्त निजी है-
	     मेरा अर्जित : वही दे रहा हूँ
	     और मेरे राग-सत्य!
	     मैं तुम्हें।
	     ऐसे तो हैं अनेक जिन के द्वारा
	     मैं जिया गया; ऐसा है बहुत
	     जिसे मैं दिया गया। 
	     यह इतना मैं ने दिया।
	     अल्प यह लय-क्षण मैं ने जिया।
	     आह, यह विस्मय!
	     उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
	     उसे दिया।
	     इस पूजा-क्षण में
	     सहज, स्वतःप्रेरित
	     मैं ने संकल्प किया।
	6 मार्च, 1963
	               प्रातःसंकल्प
	     ओ आस्था के अरुण!
	     हाँक ला उस ज्वलन्त के घोड़े।
	     खूँद डालने दे
	     तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को
	     नभ का कच्चा आँगन!
	     बढ़ आ, जयी!
	     सँभाल चक्रमंडल यह अपना।
	     मैं कहीं दूर :
	     मैं बँधा नहीं हूँ,
	     झुकूँ, डरूँ,
	     दूर्वा की पत्ती-सा
	     नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
	     झंझा सिर पर से निकल जाय!
	     मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नात हूँ;
	     तेरे आवाहन से पहले ही
	     मैं अपने को लुटा चुका हूँ :
	     अपना नहीं रहा मैं
	     और नहीं रहने की यह बोधभूमि
	     तेरी सत्ता से, सार्वभौम। है परे,
	     सर्वदा परे रहेगी।
	     ‘एक मैं नहीं हूँ’-
	     अस्ति दूसरी इस से बड़ी नहीं है कोई।  
	     इस मर्यादातीत
	     अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं 
	     आवाहन करता हूँ :
	     आओ, भाई!
	     राजा जिस के होगे, होगे :
	     मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
	     स्वेच्छा से दिया जा चुका!
	7 मार्च, 1963
	               एक दिन चुक जाएगी ही बात
	     बात है :
	     चुकती रहेगी
	     एक दिन चुक जाएगी ही बात।
	     जब चुक चले तब उस बिन्दु पर
	     जो मैं बचूँ
	     (मैं बचूँगा ही!)
	     उस को मैं कहूँ-इस मोह में अब और कब तक रहूँ?
	     चुक रहा हूँ मैं।
	     स्वयं जब चुक चलूँ
	     तब भी बच रहे जो बात-
	     (बात ही तो रहेगी!)
	     उसी को कहूँ :
	     यह सम्भावना-यह नियति-कवि की
	     सहूँ।उतना भर कहूँ :
	     -इतना कर सकूँ
	     जब तक चुकूँ!
	नयी दिल्ली
	दीवाली : 15 नवम्बर, 1963
	               ओ निःसंग ममेतर
	               (1)
	     आज फिर एक बार
	     मैं प्यार को जगाता हूँ
	     खोल सब मुँदे द्वार
	     इस अगुरु-धूप-गन्ध-रुँधे सोने के घर के
	     हर कोने को सुनहली खुली धूप में निल्हाता हूँ।
	     तुम जो मेरी हो, मुझ में हो,
	     सघनतम निविड में
	     मैं ही जो हो अनन्य
	     तुम्हें मैं दूर बाहर से, प्रान्तर से, 
	     देशावर से, कालेतर से
	     तल से, अतल से, धरा से, सागर से,
	     अन्तरीक्ष से निर्व्यास तेजस् के निर्गभीर शून्य आकर से
	     मैं, समाहित, अन्तःपूत,
	     मन्त्राहूत कर तुम्हें
	     ओ निस्संग ममेतर
	     ओ अभिन्न प्यार,
	     ओ धनी, आज फिर एक बार
	     तुम को बुलाता हूँ-
	     और जो मैं हूँ, जो जाना-पहचाना,
	     जिया-अपनाया है, मेरा है,
	     धन है, संचय है, उस की एक-एक कली को
	     न्यौछावर लुटाता हूँ।
	               (2)
	     जिन शिखरों की
	     हेम-मज्जित उँगलियों ने
	     निर्विकल्प इंगित से
	     जिस निर्व्यास उजाले को
	     सतत झलकाया है-
	     उस में जो छाया मैं ने पहचानी है
	     तुम्हारी है। जिन झीलों की
	     जिन पारदर्शी लहरों ने
	     नीचे छिपे शैवाल को सुनहला चमकाया है,
	     निश्चल निस्तल गहराइयों में 
	     जो निश्छल उल्लास झलकाया है,
	     उस में निर्वाक् मैं ने तुम्हें पाया है।
	     भटकी हवाएँ जो गाती हैं,
	     रात की सिहरती पत्तियों से
	     अनमनी झरती वारि-बूँदें
	     जिसे टेरती हैं,
	     फूलों की पीली पियालियाँ
	     जिन की ही मुसकान छलकाती हैं,
	     ओट मिट्टी की, असंख्य रसातुरा शिराएँ
	     जिस मात्र को हेरती हैं;
	     वसन्त जो लाता है,
	     निदाघ तपाता है,
	     वर्षा जिसे धोती है, शरद सँजोता है,
	     अगहन पकाता और फागुन लहराता
	     और चैत काट, बाँध, रौंद, भर कर ले जाता है-
	     नैसर्गिक चंक्रमण सारा-
	     पर दूर क्यों,
	     मैं ही जो साँस लेता हूँ
	     जो हवा पीता हूँ-
	     उसमें हर बार, हर बार
	     अविराम, अक्लान्त, अनाप्यायित
	     तुम्हें जीता हूँ।
	               (3)
	     घाटियों में हँसियाँ गूँजती हैं।
	     झरनों में अजस्रता प्रतिश्रुति होती है।
	     पंछी ऊँची भरते हैं उड़ान-
	     आशाओं का इन्द्र-चाप
	     दोनों छोर नभ के मिलाता है।
	     मुझ में पर-मुझ में-मुझ में-
	     मेरे हर गीत में मेरी हर ज्ञप्ति में-
	     कुछ है जो काँटे कसकाता,
	     अंगारे सुलगाता है-
	     मेरे हर स्पन्दन में, साँस में, समाई में
	     विरह की आप्त व्यथा रोती है।
	     जीना-सुलगना है
	     जागना-उमँगना है
	     चीन्हना-चेतना का तुम्हारे रंग रँगना है।
	               (4)
	     मैं ने तुम्हें देखा है
	     असंख्य बार :
	     मेरी इन आँखों में बसी हुई है
	     छाया उस अनवद्य रूप की।
	     मेरे नासापुटों में तुम्हारी गन्ध-
	     मैं स्वयं उस से सुवासित हूँ।
	     मेरे स्तब्ध मानस में गीत की लहर-सा
	     छाया है तुम्हारा स्वर।
	     और रसास्वाद : मेरी स्मृति अभिभूत है।
	     मैं ने तुम्हें छुआ है
	     मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम
	     मेरी उँगलियों बीच छन कर बही हो-
	     कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त।
	     मैं ने तुम्हें चूमा है
	     और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप
	     मेरा हर रक्त-कण धारे है।
	     आह! पर मैं ने तुम्हें जाना नहीं।
	               (5)
	     नहीं! मैं ने तुम्हें केवल मात्र जाना है।
	     देखा नहीं मैं ने कभी,
	     सुना नहीं, छुआ नहीं,
	     किया नहीं रसास्वाद-
	     ओ स्वतःप्रमाण! मैं ने
	     तुम्हें जाना,
	     केवल मात्र जाना है।
	     देख मैं सका नहीं :
	     दीठ रही ओछी, क्यों कि तुम समग्र एक विश्व हो
	     छू सका नहीं : 
	     अधूरा रहा स्पर्श क्यों कि तुम तरल हो, वायवी हो
	     पहचान सका नहीं : तुम मायाविनी, कामरूपा हो।
	     किन्तु, हाँ, पकड़ सका
	     पकड़ सका, भोग सका
	     क्यों कि जीवनानुभूति
	     बिजली-सी त्वरग, अमोघ एक पंजा है
	     बलिष्ठ; 
	     एक जाल निर्वारणीय :
	     अनुभूति से तो
	     कभी, कहीं, कुछ नहीं
	     बच के निकलता!
	               (6)
	     जीवनानुभूति : एक पंजा कि जिस में
	     तुम्हारे साथ मैं भी पकड़ में आ गया हूँ।
	     एक जाल, जिस में
	     तुम्हारे साथ मैं भी बँध गया हूँ।
	     जीवनानुभूति :
	     एक चक्की। एक कोल्हू।
	     समय की अजस्र धार का घुमाया हुआ
	     पर्वती घराट् एक अविराम।
	     एक भट्ठी, एक आवाँ स्वतःतप्त :
	     अनुभूति!
	               (7)
	     तुम्हें केवल मात्र जाना है,
	     केवल मात्र तुम्हें जाना है,
	     तुम्हें जाना है, अप्रमाद तुम्हें जपा है
	     तुम्हें स्मरा है।
	     और मैं ने देखा है-
	     और मेरी स्मृति ने
	     मेरी देखी सारी रूप-राशि को इकाई दी है।
	     मैं ने सुना है-
	     और मेरी अविकल्प स्मृति ने
	     सभी स्वर एक मूर्च्छना में गूँथ डाले हैं।
	     -सूँघा, और स्मृति ने
	     विकीर्ण सब गन्धों को
	     चयित कर दिया एक वृन्त में एक ही वसन्त के।
	     -मैं ने छुआ है :
	     और मेरे ज्ञान ने असंख्य माया-मूर्तियों को
	     दी है वह संहति अचूक
	     जो मात्र मेरी पहचानी है
	     जिसे मात्र मैं ने चाहा है।
	     -मैं ने चूमा है,
	     और, ओ आस्वाद्य मेरी!
	     ले गयी है प्रत्यभिज्ञा मुझे उस उत्स तक 
	     जिस की पीयूषवर्षी, अनवद्य, अद्वितीय धार
	     मुझे आप्यायित करती है।
	     हाँ, मैं ने तुम्हें जाना है, मैं जानता हूँ,
	     पहचानता हूँ, सांगोपांग;
	     और भूलता नहीं हूँ-कभी भूल नहीं सकता!
	     भूलता नहीं हूँ कभी भूल नहीं सकता
	     और मैं बिखरना नहीं चाहता।
	     आज, मन्त्राहूत ओ प्रियस्व मेरी!
	     मुझ को जो कहना है, वह इस धधकते क्षण में
	     वाग्देवता की यज्ञ-ज्वाला जब तक अभी
	     जलती है मेरी इस आविष्ट जिह्वा पर,
	     तब तक-मैं कह लूँ :
	     मेरे ही दाह का हुताशन हो साक्षी मेरा!
	               (8)
	     ओ आहूत!
	     ओ प्रत्यक्ष!
	     अप्रतिम!
	     ओ स्वयंप्रतिष्ठ!
	     सुनो संकल्प मेरा :
	     मैं ने छुआ है, और मैं छुआ गया हूँ;
	     मैं ने चूमा है, और मैं चूमा गया हूँ;
	     मैं विजेता हूँ, मुझे जीत लिया गया है; 
	     मैं हूँ, और मैं दे दिया गया हूँ;
	     मैं जिया हूँ, और मेरे भीतर से जी लिया गया है;
	     मैं मिटा हूँ, मैं पराभूत हूँ, मैं तिरोहित हूँ,
	     मैं अवतरित हुआ हूँ, मैं आत्मसात् हूँ,
	     अमर्त्य, कालजित् हूँ।
	     मैं चला हूँ
	     पहचान कर, प्रकाश में,
	     दिक्-प्रबुद्ध,
	     लक्ष्यसिद्ध।
	     इसी बल
	     जहाँ-जहाँ पहचान हुई, मैं ने
	     वह ठाँव छोड़ दी;
	     ममता ने तरिणी को तीर-ओर मोड़ा-
	     वह डोर मैं ने तोड़ दी।
	     हर लीक पोंछी, हर डगर मिटा दी, हर दीप
	     निवा मैं ने
	     बढ़ अन्धकार में अपनी धमनी
	     तेरे साथ जोड़ दी।
	               (9)
	     ओ मेरी सह-तितीर्षु,
	     हमीं तो सागर हैं
	     जिस के हम किनारे हैं क्यों कि जिसे हम ने
	     पार कर लिया है।
	     ओ मेरी सहयायिनि,
	     हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं
	     जिसे हम ओक-भर पीते हैं-
	     बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से, 
	     क्यों कि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे
	     पूरित किये रहता है।
	     ओ मेरी सहधर्मा,
	     छू दे यह मेरा कर : आहुति दे दूँ-
	     ओ मेरी अतृत्प, दुःशम्य धधक, मेरी होता
	     ओ मेरी हविष्यान्न,
	     आ तू, मुझे खा
	     जैसे मैं ने तुझे खाया है
	     प्रसादवत्।
	     हम परस्पराशी हैं क्यों कि परस्परापोषी हैं,
	     परस्परजीवी हैं। 
	               (10)
	     ओ सहजन्मा, सह-सुभगा
	     नित्योढ़ा, सहभोक्ता,
	     सहजीवी, कल्याणी।
	               (11)
	     ओ मेरे पुण्य-प्रभव,
	     मेरे आलोक-स्नात, पद्म-पत्रस्थ जल-बिन्दु,
	     मेरी आँखों के तारे,
	     ओ ध्रुव, ओ चंचल,
	     ओ तपोजात,
	     मेरे कोटि-कोटि लहरों से मँजे एकमात्र मोती
	     ओ विश्व-प्रतिम,
	     अब तू इस कृती सीप को अपने में समेट ले,
	     यह परिदृश्य सोख ले।
	     स्वाति बूँद! चातक को आत्मलीन तू कर ले!
	     ओ वरिष्ठ! ओ वर दे! वर ले!
	जनवरी, 1964
	               महानगर : कुहरा
	     झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे
	     जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं।
	     रंग-बिरंगी हर थिगली
	     संसार एक।
	     सीली सड़कों पर कराहती ठिलती जाती
	     ये अंगार-नैन गाड़ियाँ
	     बनाती-जाती हैं आवर्त-विवर्त;
	     अनवरत बाँध रहीं
	     उन अधर-टँके सब संसारों को
	     एक कुंडली में, जिस पर
	     होगा आसन
	     किस निराधार नारायण का?
	     ये कितने निराधार नर
	     क्षण-भर हर चादर की ओट उझक
	     तिर-घिर आते हैं
	     एक पिघलती सुलगन के घेरे में :
	     ऊभ-चूभ कर
	     पुनः डूबने को-चादर की ओट
	     या कि गाड़ियों की
	     अंगार-कगारी तमोनदी में।
	     ओ नर! ओ नारायण!
	     उभय-बन्ध ओ निराधार!
	नयी दिल्ली
	मार्च, 1964
	               बेला वसन्त की
	     एक-एक कर झरते हैं फूल रुईंले, बबूल के
	     अपनी ही गन्ध-नदी पर नाव-से तिरते, गिरते हैं
	     झूलती है बेल लदी झुमकों से चुप मुसकाती है
	     बह के समीर दूब-घासों को कूल की/उलझाते फिरते हैं।
	     बेला चढ़ आती है वसन्त की।
	     (-वसन्त ही सही!)
	     जिस की सिरिस-सी इकहरी त्वचा को
	     सुरसुराती इन उँगलियों ने टटोला था
	     जिस की कँपती पदुम-पंखुड़ी-सी झँपती पलकों को
	     -साँस-सहमे बड़े हलके बल से खोला था
	     जिस की उछरती-सी चितवन धरा-भर को दुलरा गयी थी
	     जहाँ-तहाँ दुहरी धूप के फूल-तारे खिला गयी थी
	     वही, वही, मेरी छरहरी निजी मधुलता तो
	     नहीं रही...
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	21 मार्च, 1964
	               पंचमुख गुड़हल
	     शान्त मेरे सँझाये कमरे,
	     शान्त मेरे थके-हारे दिल।
	     मेरी अगरबत्ती के धुएँ के
	     बल खाते डोरे, लाल
	     अंगारे-से डह-डह इस
	     पंचमुख गुड़हल के फूल को
	     बाँधते रहो नीरव-
	     जब तक बाँधते रहो।
	     साँझ के सन्नाटे में मैं
	     सका तो एक धुन
	     निःशब्द गाऊँगा।
	     फिर अभी तो वह आएगी :
	     रागों की आग एक शतजिह्व
	     लहलह सब पर छा जाएगी।
	     दिल, साँझ, शम, कमरा, क्लान्ति
	     एक ही हिलोर डोरे तोड़ सभी
	     अपनी ही लय में बहाएगी :
	     फूल मुक्त, धरा बँध जाएगी।
	     अपने निवेदन का धुआँ बन
	     अपनी अगरबत्ती-सा
	     मैं चुक जाऊँगा।
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	22 मार्च, 1964
	               नृत्य-स्मृति
	     याद है मुझे वह खँडहर रंगशाला की मुँडेर पर खुले में
	     नृत्य बिना वाद्य का चाँदनी के तार ही जब गुँजरित हो उठे थे
	     किलकी थी मरुतों की बाँसुरी।
	     किंकिणी-से बुध-शुक्र
	     गमक उठा था द्रुत ताल पर
	     हिया ये मृदंग-सा। याद है तो
	     गूँज रहा होगा वह अभी वहाँ
	     साथ मिल पत्थरों में छने हुए झरने के शोर के
	     झिल्ली की सारंगी,
	     मंजीर खनकाती वन-पत्तियाँ।
	     नीरव मृदंग।
	     यति अन्तहीन।
	     स्मरण के मंच पर थिरकी थीं तुम,
	     कलहंसिनी जो-कहाँ गयीं?
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	23 मार्च, 1964
	               ओ एक ही कली की
	     ओ एक ही कली की
	     मेरे साथ प्रारब्ध-सी लिपटी हुई
	     दूसरी चम्पई पंखुड़ी!
	     हमारे खिलते न खिलते सुगन्ध तो
	     हमारे बीच में से होती उड़ जाएगी?
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	23 मार्च, 1964
	               गुल-लालः
	     लालः के इस भरे हुए दिल-से पके लाल फूल को देखो
	     जो भोर के साथ विकसेगा
	     फिर साँझ के संग सकुचाएगा
	     और (अगले दिन) फिर एक बार खिलेगा
	     फिर साँझ को मुँद जाएगा।
	     और फिर एक बार उमँगेगा।
	     तब कुम्हलाता हुआ काला पड़ जाएगा।
	     पर मैं-वह भरा हुआ दिल-
	     क्या मुझे फिर कभी खिलना है?
	     जिस में (यदि) हँसना है
	     वह भोर ही क्या फिर आएगा?
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	29 मार्च, 1964
	               उत्तर-वासन्ती दिन
	     यह अप्रत्याशित उजला
	     दिपती धूप-भरा उत्तर-वासन्ती दिन
	     जिस में फूलों के रंग
	     चौंक कर खिले,
	     पंछियों की बोली है ठिठकी-सी,
	     हम साझा भोग सके होते-तू-मैं-
	     तो भी मैं इसे समूचा तुझ को भेंट चुका होता :
	     अब भी देता हूँ
	     (चौंका, ठिठका मैं)
	     उतना ही सहज, कदाचित् तेरे उतना ही अनजाने भी।
	     ले, दिया गया यह : एक छोड़ उस लौ को जो
	     एकान्त मुझे झुलसाती है।
	बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
	5 अप्रैल, 1964
	               धड़कन-धड़कन
	     धड़कन-धड़कन-धड़कन-
	     दायीं, बायीं, कौन आँख की फड़कन-
	     मीठी कड़वी तीखी सीठी
	     कसक-किरकिरी किन यादों की रड़कन?
	     उँह? कुछ नहीं, नशे के झोंके-से में
	     स्मृति के शीशे की तड़कन?
	अगस्त, 1964
	               सम्पराय
	     हाँ, भाई, वह राह
	     मुझे मिली थी;
	     कुहरे में जैसी दी मुझे दिखाई
	     मैं ने नापी : धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे-
	     आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लायी।
	     यहाँ चुक गयी डगर :
	     उलहना नहीं, मानता हूँ पर
	     आज वहाँ हूँ जहाँ कभी था-
	     एक कुहासे की देहरी पर :
	     दीख रहा है पार
	     रूप-रूपायमान-रूपायित-
	     पहचाना कुछ : जिधर फिर बढ़ूँ-
	     धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे,
	     हठ धर, मन में भर
	     उछाह! कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से
	     एक बार वह पार गया है?
	     नहीं, वही वहीं है कहीं और :
	     यह ठौर
	     नया है उतना ही जितनी यह राह,
	     कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु :
	     यह मैं भी : सभी नया है-
	     नाता ही एक नहीं बदला :
	     वह एक खोजता राही
	     एक कुहासे की देहरी पर
	     लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की
	     बढ़ता हठ धर
	     अनजाने कुछ की ओर
	     भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार!
	     रूप, रूपायमान,
	     रूपायित। यों गृहीत,
	     पहचाना। फिर इस लिए अनृत
	     एकान्त झूठ!
	     वह कैसे होती यात्रा
	     जो पहुँचा कर चुक जाती?
	     झूठा होगा वह तीर्थ
	     सरोवर, नदी, महासागर का जो न किनारा-भर होता।
	     जहाँ से अपने ही संकल्प
	     न बन जाते ललकार
	     नये अनजाने पानी में घुसने की।
	     ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं :
	     पर क्या जाने वे किस के हैं? 
	     क्या जाने वह डूबा, तैरा
	     या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया?
	     या-क्या जाने?-ये फूल स्वयं उसकी भस्मी के ही
	     प्रतीक हैं! यह भी हो सकता है
	     कोई इस देहरी पर ही बैठ रहे :
	     जो आएँ उन्हें असीसे,
	     जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे
	     जो पार स्वयं वह कर आया। 
	     हो सकता है : पर मेरे द्वारा नहीं-
	     अब नहीं। मैं जिस देहरी पर हूँ
	     तीर्थ नहीं, वह सम्पराय है।
	     हठ में कमी नहीं है,
	     मेरा संकल्प भी नहीं डगमग,
	     किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं
	     मुझे पूछना है अब-और खोजता हूँ उस को जिस से
	     यह पूछ सकूँ-
	     ‘वह दीख रहा है पार मुझे,
	     पर बोलो, उस तक जाने का क्या है उपाय-
	     है क्या उपाय? रूप :
	     रूप, रूपायमान,
	     रूपायित।
	     स्पृष्ट। अनृत।
	     प्रव्रजित!
	     और कहाँ तक यही अनुक्रम!
	     कितना और कुहासा
	     कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर?
	     कितना हठ?
	     कितने-कितने मन-कितना उछाह?’
	     है राह! कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के है।
	     मैं हूँ तो वह भी है,
	     तीर्थाटन को निकला हूँ
	     काँधे बाँधे हूँ लकड़ियाँ चिता की :
	     गाता जाता हूँ-
	     ‘है, पथ है :
	     वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार-
	     यों नहीं कि वह चुक जाता है :
	     पर तीर्थ यही तो होते हैं-
	     अनजाने-यद्यपि वांछित-सम्पराय :
	     हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!’
	नयी दिल्ली
	नवम्बर, 1964
	               कि हम नहीं रहेंगे
	     हम ने शिखरों पर जो प्यार किया
	     घाटियों में उसे याद करते रहे!
	     फिर तलहटियों में पछताया किये
	     कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!
	     पर जिस दिन सहसा आ निकले
	     सागर के किनारे-   
	     ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे
	     पलक की झपक-भर में पहचाना
	     कि यह अपने को कर्त्ता जो माना-
	     यही तो प्रमाद करते रहे!
	     शिखर तो सभी अभी हैं,
	     घाटियों में हरियालियाँ छायी हैं;
	     तलहटियाँ तो और भी
	     नयी बस्तियों में उभर आयी हैं।
	     सभी कुछ तो बना है, रहेगा :
	     एक प्यार ही को क्या
	     नश्वर हम कहेंगे-
	     इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?
	नयी दिल्ली
	16 दिसम्बर, 1964