आसपास जंगली हवाएँ हैं मैं हूँ पोर-पोर जलती समिधाएँ हैं मैं हूँ
आड़े-तिरछे लगाव बनते जाते स्वभाव सिर धुनती होठ की ऋचाएँ हैं मैं हूँ
अगले घुटने मोड़े झाग उगलते घोड़े जबड़ों में कसती बल्गाएँ हैं मैं हूँ
हिंदी समय में माहेश्वर तिवारी की रचनाएँ