अब भी
मुझमें रोज एक
नालंदा जलता है
अक्सर अब अब भी
मुझ तक आते हैं
बस केवल दो ही
आदमकद चीखें
या दल के दल
अश्वारोही
घबराया-घबराया
कोई
मुझमें चलता है
जले-अधजले
भोजपत्र
उड़ रहे हवाओं में
गंध उन्हीं की
है फैली
हर ओर दिशाओं में
बूट पहन
कोई सपनों को
रोज कुचलता है