धूप थे, बादल हुए, तिनके हुए सैकड़ों हिस्से गए दिन के हुए
ढल गई किरनों नहाई दोपहर दफ्तरों से लौटकर आया शहर हम कहीं उनके हुए इनके हुए
उदासी की पर्त-सी जमने लगी रेंगती-सी भीड़ फिर थमने लगी हाथ कंधों पर पड़े जिनके हुए
हिंदी समय में माहेश्वर तिवारी की रचनाएँ