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कविता

रतजगा काजल
मालिनी गौतम


समय के बिखरे हुए हर ओर निर्मम पल
टीसता है मन कि जैसे
सुआ कोई चुभ गया है
ओढ़ पंखों का दुशाला
क्यों हुई गुमसुम बया है
इन सवालों के कहीं मिलते नहीं हैं हल

एक हाँड़ी आँच पर
संबंध पल-पल जाँचती है
अधपके-से सूत्र सब
बेचैन होकर ताकती है
गगन छूने को धुआँ है हो रहा बेकल

मोरपंखी ओढ़नी में
संदली कुछ याद महके
पर, कशीदों में कढ़े
कोयल-पपीहे अब न चहके
दृगों में ठहरा हुआ है रतजगा काजल 


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