काठ-सी संवेदनाएँ
शेष भर हैं
झुर्रियों पर उम्र ने
लिख दी कहानी
काँपते होठों पे बातें
कुछ पुरानी
साँस साँकल खटखटाती
कह रही है
कब तलक है प्रीत
काया से निभानी
अधपके बालों में
गाँठों-सी उलझती
कसमसाती कामनाएँ
शेष भर हैं
मुँह अँधेरे
तीर गंगा के नहाती
धार में अपने सभी
सुख-दुख सिराती
श्वेत-वसना भूल कर
उद्वेग सारे
मंत्र जीवन-साधना के
बुदबुदाती
बूँद बनकर जो पलक पर आ ठहरती
डगमगाती आस्थाएँ
शेष भर हैं