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कविता

अप्रतिहत

महेंद्र भटनागर


मैं नहीं  दुर्भाग्य के  सम्मुख झुकूँगा
आज जीवन में हुआ असफल भले ही !

एक पल भी साधना की भावना सोयी नहीं,
और  जाऊँ हार, ऐसी बात भी  कोई नहीं,
     मैं नहीं सुनसान राहों पर थकूँगा
     दूर, बेहद दूर हो मंजिल भले ही !

आज छाया है अमावस-सा अँधेरा सब तरफ,
पर, अभी कल मुस्कराएगा सबेरा सब तरफ,
     मैं न मन की पंगु दुविधा में रुकूँगा
     पास में चाहे न हो संबल भले ही !


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