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कविता

माघ का सवेरा

पूर्णिमा वर्मन


माघ का
सुंदर सवेरा
खिल रहा बटियों के ऊपर
तरल जलधारा लरजती
ठिठक चलती
और तुहिनों से सजी
पूरब की धरती
शांत निर्मल सुखद किरणें
उतरतीं
निःशब्द पग धर
मंदिरों की घंटियाँ
बजतीं मधुर-सी
गूँजती फिरतीं
दिशाओं में भँवर सी
साथ ताली दे रहे हैं
गंडकी के
शब्द सत्वर
शालिग्रामों की चरण रज
गहे यह मन
सदा मंगल-दायिनी हो
प्रकृति पावन                      
पर्वतों से दीप्त उतरें
स्वस्ति मुद्रा में
शुभंकर


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