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कविता

बाग वाला दिन

पूर्णिमा वर्मन


उदासी में खुशी की
आस वाला दिन
आज फिर बाग वाला दिन

मधुर छनती
झर रही यह धूप सर्दी की
याद आती चाय
अदरक और हल्दी की
पाँव के नीचे
नरम है दूब मनभावन
चुभ रही फिर भी
हवाएँ कड़क वर्दी सी
बोरसी में सुलगती
आग वाला दिन
आज फिर बाग वाला दिन

खींच कर
आराम कुर्सी एक कोने में
तान दी लंबी दुपहरी
सुस्त होने में
रह गए यों ही पड़े
जो काम करने थे
गुम रहे हम अपने भीतर
आप होने में
सुगंधों में उमगती
याद वाला दिन
आज फिर बाग वाला दिन


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