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कविता

करघा व्यर्थ हुआ

त्रिलोक सिंह ठकुरेला


करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने बुनना छोड़ दिया। 

काशी में
नंगों का बहुमत,
अब चादर की
किसे जरूरत,
सिर धुन रहे कबीर
रूई का
धुनना छोड़ दिया।

धुंध भरे दिन
काली रातें,
पहले जैसी
रहीं न बातें,
लोग काँच पर मोहित
मोती
चुनना छोड़ दिया।

तन मन थका
गाँव घर जाकर,
किसे सुनाएँ
ढाई आखर,
लोग बुत हुए
सच्ची बातें
सुनना छोड़ दिया।  


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