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कविता

एक आदिम नाच

अवनीश सिंह चौहान


आज मुझमें
बज रहा
जो तार है -
वो मैं नहीं -
आसावरी तू

एक स्मित
रेख तेरी
आ बसी
जब से दृगों में
हर दिशा
तू ही दिखे है
बाग-वृक्षों में,
खगों में

दर्पणों के सामने
जो बिंब हूँ -
वो मैं नहीं -
कादंबरी तू

सूर्यमुखभा!
कैथवक्षा!
नाभिगूढ़ा!
कटिकमानी
बींध जाते
हृदय मेरा
मौन इनकी
दग्ध वाणी

नाचता हूँ
एक आदिम
नाच जो -
वो मैं नहीं -
है बावरी तू


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