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कविता

बंद वातायन

केसरीनाथ त्रिपाठी


बंद वातायन सभी खुल जायँगे
गीत मेरे गूँज कर कह जायँगे

जो उबासी, जो उदासी, जो घुटन थी कैद में
शक्ति उसके क्षरण की थी न किसी भी वैद्य में
ले प्रलय को हाथ में हम फिर चलेंगे
अग्नि पथ पर पाँव फिर से बढ़ चलेंगे
विप्‍लवी स्‍वर सिंह गर्जन फिर करेंगे
फड़फड़ाते होंठ जब सी जायँगे

मलयगंधी वायु के सुखमय झकोरे
साँस से भर झाँकते चंचल चितेरे
दूर उड़ता जा रहा था एक जोड़ा
मुक्ति का आभास पाकर बंध तोड़ा
शब्‍द मेरे बाँसुरी के स्‍वर बनेंगे
गुनगुनाते अधर जब खुल जायँगे

सुरमई-सी शाम का कुछ-कुछ धुँधलका
कुछ इधर से, कुछ उधर से, प्‍यार छलका
तर्जनी से देखती उस भीड़ में
हम बसे जाकर हृदय के नीड़ में
आज पल दो जिए जो साथ में
मीत मेरे पल वही बन जायँगे
गीत मेरे गूँज कर कह जायँगे  


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