कंठ में खुशियों के स्वर आते नहीं
वेदना के स्वर निकलते हैं नहीं
सो गया जब आत्मा का सजग प्रहरी
मीत ने भी त्याग दी संगीत लहरी
मूक मन, पर शब्द थमते हैं नहीं
मीत मन है, गीत तन है, प्रीत प्रण है
प्रीत मन का आचमन, मन का सुमन है
अर्चना है साधना का एक दर्पण
आस्था से पूर्ण मन का है समर्पण
रिक्तियों के ठौर लगते हैं नहीं
सूइयों की नोंक से जो चित्र बनते
कब, कहाँ कैसी चुभन, बस वह समझते
दे दिया आकार, केवल रूप बदला
आवरण भी ढँक न पाए घाव रिसते
वर्जना के बंध टिकते हैं नहीं
तालिका हो सूर्य या सिंदूर की
कुंदनी काया तपी तंदूर की
अब कहाँ कैसे करें रखवालियाँ
शून्य को ही देखते हैं सब यहाँ
टोहियों के पाँव थकते हैं नहीं
बिंदु था इक, वृत बढ़ता जा रहा
तिमिर से तो सूर्य ढँकता जा रहा
निर्विकारों से विकारों की झड़ी
द्रौपदी इक बार फिर से है खड़ी
कोई कान्हा यहाँ दिखते हैं नहीं
हम सभी कुछ, तुम नहीं कुछ, भाव जागे
स्नेह, संस्कृति सब तजे, है स्वार्थ आगे
धर्म, गंगा, ज्ञान की सूखी त्रिवेणी
ताल, पोखर पा रहे हैं अग्र श्रेणी
इस पंक में पंकज तो खिलते हैं नहीं
व्यथा जिनके घर जमाती हृदय में
कोसते वह भाग्य को हर विषय में
चाहते उड़ना बड़े संकल्प लेकर
श्रम नहीं, कैसे छुएँ आकाश बे-पर
बिन परिश्रम चीटियों के घर भी भरते हैं नहीं