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कविता

चाँदनी थी तुम

जयकृष्ण राय तुषार


चाँदनी थी
तुम! धुआँ सी
हो गई तस्वीर।
मन तुम्हारा
पढ़ न पाए
असद ग़ालिब, मीर।

घोंसला तुमने
बनाया
मैं परिंदों सा उड़ा,
वक्त की
पगडंडियों पर
जब जहाँ चाहा मुड़ा
और तेरे
पाँव में
हर पल रही जंजीर।

खनखनाते
बर्तनों में
लोरियों में गुम रही
घन अँधेरे में
दिए की लौ
सरीखी तुम रही,
आँधियाँ
जब भी चलीं
तुम हो गई प्राचीर।

पत्थरों में भी
अनोखी
मूर्तियाँ गढ़ती रही,
एक दस्तावेज
अलिखित
रोज तुम पढ़ती रही,
ताल के
शैवाल में तुम
खिली बन पुंडीर।


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