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कविता

मौन की चादर

धनंजय सिंह


मौन की चादर बुनी है
आज पहली बार मैंने
मौन की चादर बुनी है
काट दो यदि काट पाओ तार कोई

एक युग से जिंदगी के घोल को मैं
एक मीठा विष समझकर पी रहा हूँ
आदमी घबरा न जाए मुश्किलों से
इसलिए मुस्कान बनकर जी रहा हूँ

और यों
अविराम गति से बढ़ रहा हूँ
रुक न जाए राह में मन-हार कोई

बहुत दिन पहले कभी जब रोशनी थी
चाँदनी ने था मुझे तब भी बुलाया
नाम चाहे जो इसे तुम आज दो पर
कोश आँसू का नहीं मैंने लुटाया

तुम किनारे पर खड़े
आवाज मत दो
खींचती मुझको इधर मँझधार कोई

एक झिलमिल-सा कवच जो देखते हो
आवरण है यह उतारूँगा इसे भी
जो अँधेरा दीपकों की आँख में है
एक दिन मैं ही उजारूँगा उसे भी

यों प्रकाशित
दिव्यता होगी हृदय की
है न जिसके द्वार बंदनवार कोई।

नित्य ही होता हृदयगत भाव का संयत प्रदर्शन
किंतु मैं अनुवाद कर पाता नहीं हूँ
जो स्वयं ही हाथ से छूटे छिटक कर
उन क्षणों को याद कर पाता नहीं हूँ

यों लिए वीणा
सदा फिरता रहा हूँ
बाँध ले शायद तुम्हे झनकार कोई।


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