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कविता

गूँगे बोल नहीं पाते हैं

कमलेश द्विवेदी


दो गूँगे आपस में कितने अच्छे ढँग से बतियाते हैं।
फिर भी दुनिया ये कहती है - "गूँगे बोल नहीं पाते हैं।"

जबसे इस धरती पर आया
उसने सिर्फ मौन ही भोगा।
उसे समझने को हमको भी
उस जैसा ही बनना होगा।
ज्यों बच्चों से बातें करते हम भी तुतले बन जाते हैं।
दो गूँगे आपस में कितने अच्छे ढँग से बतियाते हैं।

जिसने हमको वाणी दी है
उसने उसको मौन दिया है।
फिर भी उसने उससे अब तक
कभी न शिकवा-गिला किया है
हम उससे कितनी शिकायतें करते हैं रोते-गाते हैं।
दो गूँगे आपस में कितने अच्छे ढँग से बतियाते हैं।

"मौन बड़ा होता वाणी से"
हमने सबसे यही सुना है।
लेकिन इतनी बड़ी बात को
क्या जीवन में कभी गुना है?
भले मौन हो बहुत जरूरी फिर भी हम सब चिल्लाते हैं।
दो गूँगे आपस में कितने अच्छे ढँग से बतियाते हैं।


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