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कविता

कल का तानाबाना

रमेश दत्त गौतम


कल का तानाबाना बुनते
कम हुआ एक दिन
जीवन का।

दिन उगते ही खा गई नियति
उन्मुक्त क्षणों के उत्सव सब
सूरज ने धरी हथेली पर
तालिका पेट की बड़ी अजब
चल पड़े धूप के साथ कदम
फिर पता पूछने
सावन का।

कब समय तनावों ने छोड़ा
कर सकें प्रणय की तनिक पहल
ठंडे चूल्हे के सिरहाने
बैठी अपनी मुमताजमहल
गहरे निष्वासों में डूबा
सारा आकाश
सुहागन का।

श्रम के अध्याय लिखे बहुत
दिनचर्या ने चट्टानों पर
प्रकाशित हुई कथा जब भी
थे और किसी के हस्ताक्षर
बस बंद लिफाफे में निकला
कागज
कोरे आश्वासन का।


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