मत उदास हो
मेरे अंतर्मन
माथे पर गीतों का चंदन है।
कोलाहल युग में एकांतमना
गीतों को देते क्यों व्यर्थ दोष
भावुक महर्षियों के वंशज हैं
अनायास ही खुलते अधर कोष
आ जाते जिह्वा पर
गीतमंत्र
जब जब भी आहत होता मन है।
यह कैसा काव्यानुष्ठान जहाँ
फोड़ दिए छंदों के मंगलघट
शब्दों की सिर चढ़ी नुमाइश में
बिकते हैं अट्टहास के जमघट
छोड़ो चिंताएँ
अक्षयधन की
जन-जन के मन में अभिनंदन है।
मृग मरीचिकाओं के आमंत्रण
चातक स्वर बूँद-बूँद रोता है|
प्यास और पानी के रिश्तों का
कागज पर मौन मुखर होता है
रूठा श्यामल घन
तो क्या हुआ
नयनों में ठहरा संवेदन है।
संभव कब अंतर्लय के बिना
गागर में सागर की भावना
सिरहाने बैठे नवगीतों की
पीर कभी देहरी मत लाँघना
लय गति मात्राओं
की छाया में
रूप रंग कविता का कुंदन है।