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कविता

धूप से अनबन

रमेश दत्त गौतम


आयु बीती
खिड़कियों की
धूप से अनबन हुए।

कोशिश कितनी करें
कुछ बात हो संवाद हो
दूर रिश्तों से विषैला
किस तरह परिवाद हो
किंतु कोई सेतु
बनता ही नहीं
जो तट छुए।

फिर कुहासे ने
चमकते सूर्य से सौदा किया
स्वर्ण मुद्राएँ लुटाईं
धूप का यौवन पिया
मुँह चिढ़ाता-सा
सुनहरी
कामधेनु को दुए।

साँप सीढ़ी खेलते
बंधक हुए शुभ आचरण
एक काली देह करती
रोशनी का अपहरण
सिर झुकाए
तीर हैं
तूणीर में सब अनछुए।


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