रंग वृक्षों में
भरे
कैसे अकेले पाँव पर।
अब नहीं मिलता
कहीं कोई
लिए मन में हरापन
देह में
सूरज उतारे
तापते केवल महाजन
तब भला
कैसे नयन बरसें
सुलगते गाँव पर।
वृक्ष तो
मानुष हुए
हम वृक्ष हो पाए नहीं हैं
हरितवसना मंत्र
अधरों तक
कभी आए नहीं हैं
निर्वसन कर
सघन छाया को
लगाया दाँव पर।
बाँचते शुभकामनाएँ
मौन योगी-सा
जिए हैं
वृक्ष इनके
अस्थिपंजर तक
हमारे ही लिए हैं
गीत अपने
कुछ लिखो तो
नीम तरु की छाँव पर।