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कविता

एक नदी संवेदना की

रमेश दत्त गौतम


एक नदी बनकर संवेदना
बहना अंतर्मन के पास।

गढ़ना
संबंधों के सेतुबंध
ठहरें न मन के उद्गार
आर पार
जाएँ अनुभूतियाँ
शब्दों को पाकर आधार
लहरों पर
तैरे अभिव्यंजना
नीर-क्षीर करती संत्रास।

कल-कल
ध्वनि पर्वों को साधना
आए न किंचित अवरोध
यात्रा में
भावुक मंदाकिनी
अधरों पर रखना युगबोध
अस्ताचल
सूरज के साथ कहीं
डूबे न हिरनों की प्यास।

गति, लय, स्वर, व्यंजन
में बाँधना
अन्र्तमुख अधरों की पीर
बैरागी बोधिवृक्ष सींचना
भर भरकर
नयनों में नीर
अपनी
मृदुभाषिणी तरंगों से
करुणा का लिखना इतिहास।


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