सगुन पंछी
यहाँ अब क्या करें आकर
न पानी है, न दाना है।
पुराने अब नहीं है
पेड़ वे हरिताभ छाया के
फले हैं फल यहाँ पर
छद्म बौनी लोकमाया के
सगुनपंछी
यहाँ अब क्या करें बसकर
न डाली है, ठिकाना है।
सरोवर जलभरे अब तो
नहीं हैं गाँव में कोई
लिए आकाश सिर पर
यह टिटहरी रात भर रोई
सगुनपंछी
यहां अब क्या करें हँसकर
न मौसम है, तराना है।
शिकारी रात भर दिनभर
यहाँ पर जाल डाले हैं
सपेरे बीन पर गाते
नचाते नाग काले हैं
सगुनपंछी
यहाँ अब क्या करें रोकर
न दादा हैं, न नाना है।