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कविता

रावी वितस्ता की

बृजनाथ श्रीवास्तव


चलो बदले
फटी चादर व्यवस्था की।

जीर्ण इतनी
छेद अनगिन हो गए तन में
और इसके
तंतु सारे खो गए वन में

नही चिंता
किसी को इस अवस्था की।

देह को
पैबन्द पर पैबंद ढकते हैं
और हम फिर -
फिर उसी में पैर रखते हैं

नहीं चिंता
दिखी रावी वितस्ता की।

रोगिया चादर
बदलकर हम नई लाए
फूल सुंदर
टाँक कर हम विश्व महकाए

हमें होने
लगी चिंता सुरक्षा की।


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