मौसमी मुड़ेरों पर टाँक गई
धूप, इत्र, गंध की लगन
रेत में मरुस्थल की पीड़ा को
पढ़ आई भीतरी अगन।
बना-बना जाता है सूरज फिर
पत्तों से चिलगोजे-फालसा
बदल गई आँख की प्रतीति और
दिन जैसे हुआ हादसा
खिड़की में चुप-उदास गौरैया
करती है मंत्र का मनन।
हो उठे बियावान बातूनी
सरगम उचाट पठारों वाली
गाती है शृंखला करीलों की
रुकी थकी मौन पहारों वाली
साये पेड़ों के गतिमान
पूरब को कर रहे गमन।
हाथों से फिसल रही मायूसी
चिटकाता उँगलियाँ हैं सन्नाटा
दूर खड़ा रेत का जहाज
देख रहा गति को किसने बाँटा
उतर रही अलगोजी शाम
चेहरों से पोंछ जलन।