इस गली में कुछ नहीं था
सिवा तेरे
व्यर्थ थे सारे बसेरे।
छटपटाहट थी अनावश्यक
मगर चुप थीं दिशाएँ
चहल-पहलों में रुकी
बेखास्ता थीं मान्यताएँ
कहें भी तो क्या कहें
इस दौर हम
वे कहीं बाकी नहीं हैं
जिन्हें कह दें हम सबेरे।
गर्म चेहरों पर नहीं
रुकतीं हवा के बोझ वाली
भूख जैसी परिस्थितियाँ
हाथ में हैं लिए थाली
छाँह में ठहरीं किसी मंदिर तले
ठिठक जा बैठीं समय के
अंत में गहरे अँधेरे।
कई उत्तरहीन प्रश्नों का
गहन-गहवर खड़ा है
सम्य आँखों के समूचे
दायरे से जो बड़ा है
कहीं न भटके नियंत्रित
यात्रा यह जा समय के पाँव में
अभिव्यक्ति का उद्यम उकेरे।