नींद आँखों से
निकलकर
खोजती संभावनाएँ
ढूँढ़ लेती है ठिकाना
शाम तक चलकर।
सुबह की कोहरिल
कमीजों से
धूप के अनजान बीजों से
अंकुरित होती
पसीने में
मंजिलों तक सभी चीजों से
दूर तक हो
भले जाना
पास न आए जमाना
बेवजह जैसे पिघलकर।
खेत की सूनी
डगर पर या
खड़ी घासों में कहीं खोया
वह जहाँ है
खोजता रहता
झपकियों का अर्थ ही गोया
दूब है उस
डरी उपमा में
चेतना की शस्य श्यामा में
बहे यह सरिता सम्हल कर।