सच को सच कहने की मुश्किल
वाह जमाने बलि बलि जाऊँ।
शीशेघर में बंद मछलियाँ
पंछी सोने के पिजड़े में
दीमक चाट रही दरवाजे
देहरी आँगन के झगड़े में,
हर पत्थर खुद को शिव बोले
किसको किसको अर्घ्य चढ़ाऊँ।
एक स्याह बादल सिर ऊपर
झूम रहा आकाश उठाए
मरजी जहाँ, वहीं पर बरसे
प्यासा भले जान से जाए,
उस पर भी जिद है लोगों की
मैं गा राग मल्हार सुनाऊँ।
कहने को मौसम खुशबू का
पीले पड़े पेड़ के पत्ते
अधनंगी शाखों पर लटके
यहाँ वहाँ बर्रों के छत्ते,
फिर भी चाह रहा पतझड़ मैं
चारण बन उसके गुण गाऊँ।