बस्ती बस्ती मचा रखा है
अंधड़ ने हलचल
फिर कैसे अव्यवस्थित मौसम
सुधर सकेगा कल।
जीवन को जीवन देता था
घर का कभी कुआँ
बदल न पाता था दिनचर्या
उड़ता हुआ धुआँ,
अब तो आँगन द्वार सभी को
धूप रही है छल।
न्याय नीति की बात कभी हम
करते रहते थे
हरा भरा धरती को करना
धर्म समझते थे,
पर अब तो शीतलता में भी
आग रही है पल।
हर नदिया में अविरल धारा
बहती रहती थी
तालाबों में कभी न जल की
कमी दिखती थी,
पर अब तो बरसे बिन बादल
गरज रहे हर पल।