रात भर जागे
सुबह को
नींद की कुछ गोलियाँ लीं
सो गए
और उत्तर आधुनिक
हम हो गए।
आ रहे थे
राह में कुछ सोचते
आप अपने बाल
सर के नोचते
क्या कहेगी घर की
वो मोनालिसा
हम इसी संकोच में थे
खो गए।
खा रहे थे फास्ट फूड
हम दौड़ते
आ भिड़ा नर-स्वान
पथ में भौंकते
इस कदर नख-दंत
हम पर आ गड़े
हम बिलख बिन आँसुओं के
रो गए।
तोड़ दी फिर छंद की
सोनम कड़ी
बुन ली फिर से
पंक्तियाँ छोटी बड़ी
रेत-सी संवेदना में
डूब कर
हम नहाए और खुद को
धो गए।