हो गई संध्या
चलो
घर लौटते हैं।
चलो
मन की इस खुशी को
एक उष्मित आँच में
अब औंटते हैं।
सुबह ही निकले
कि अब तो रात आई
लौटना है जल्द
फिर वो याद आई
सुरक्षित हैं हम
चलो अब
‘हलो’ कर बोलते हैं।
दौड़ कर आएँगी
मैं यह जानता हूँ
और उस पदचाप को
पहचानता हूँ
दुख गई होगी प्रतीक्षा में
चलो अब
उनके नयन में कौंधते हैं।