ये गुलाब
अधखिले होंठ से
कहने को कुछ
काँप रहे हैं।
काँटों में भी
हुलस रहे हैं
ये प्रवाह में
उमग रहे हैं
जाने क्यों
इतनी उदाह में
अगिन लाल लोहित
जैसे ये ताप रहे हैं।
गंध दीप ये
करने को हैं
विभा विसर्जन
रचने को हैं
और यहाँ फिर
वह उष्मित क्षण
खुले नयन से
ये भूतल नभ
नाप रहे हैं।
नवल छंद ये
नवगीतों के
अरुण कोष हैं
विश्वासों से
भरे हुए
कुछ नए घोष हैं
नए रंग में
ये मौसम संग
व्याप रहे हैं।