निकल ग्राम से,
आ पहुँचे हम विश्वग्राम में।
चकाचौंध कुछ ऐसी कुछ भी
नहीं दिख रहा
मूल्यवान है जो कुछ अपना
अर्थ खो रहा
भौतिकता तक
सीमित सब-कुछ विश्वग्राम में।
बस चीजों की हाट यहाँ पर
सजी हुई है।
नागफनी ही सबके मन में
बसी हुई है
नदी नेह की
सूखी आकर विश्वग्राम में।
कुछ ऐसा है यहाँ स्वार्थ का
ताना-बाना
है नन्हीं-सी चिड़िया लेकिन
नहीं ठिकाना।
इसलिए क्या
हम आए हैं विश्वग्राम में।