बंधु मेरे यातना यह और सब कब तक सहें।
चतुर्दिक व्याप्त गीदड़-भेड़िए मांस के भुक्खड़ ठसाठस भर चुके नुक्कड़,
बंद दरवाजे सभी की खिड़कियाँ कब तक रहें।
सूर्य-पथ पर रोज ही दम तोड़ते अहसास गुमसुम मौन है आकाश
उफ ! सहमती इस हवा के साथ सब कब तक बहें।
हिंदी समय में रमेश चंद्र पंत की रचनाएँ