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कविता

मौन हैं आकाश

रमेश चंद्र पंत


बंधु मेरे
यातना यह
और सब कब तक सहें।

चतुर्दिक व्याप्त
गीदड़-भेड़िए
मांस के भुक्खड़
ठसाठस
भर चुके नुक्कड़,

बंद दरवाजे
सभी की खिड़कियाँ
कब तक रहें।

सूर्य-पथ पर
रोज ही दम
तोड़ते अहसास
गुमसुम
मौन है आकाश

उफ ! सहमती
इस हवा के साथ
सब कब तक बहें।


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