इच्छाओं का आदिम जंगल
उसमें फँसा अकेला मन
कहो राम जी कहाँ बिताएँ
हम अपने बौराए क्षण।
धैर्य हाथ से छूटा जाता
जब पीने को जहर मिला
जीवन अपना जला खेत-सा
रूठा-रूठा पहर मिला
हाल बताकर भी क्या होगा
जब पथराए संवेदन।
झूठी बातों से अंतर्मन
हर पल आहत होता है
तलछट में जो बचा रह गया
वह सपना अब रोता है
रहे अधूरे जो लिखने थे
मौसम को नित प्रतिवेदन।
विषधर के घर दहन हो गईं
चंदन-सी अभिलाषाएँ
छाँह ढूँढ़ कर धूप थक गई
हुई पुरानी चर्चाएँ
प्रेम ग्रंथ में करना होगा
सोच समझ कर संशोधन।
उम्र बीतती फूँक फूँक कर
कदमों को धरते धरते
चुभन ओढ़ कर हवा आ गई
तोड़ दिए सारे रिश्ते
जाने कौन रहन रख आया
प्रेम भरे वे संबोधन।