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कविता

पहना मौन लिबास

मधु प्रसाद


रेशा-रेशा हुई जिंदगी
धुआँ, धुआँ हर साँस
दुर्दिन के घर में जा बैठा
अनायास मधुमास।

थक कर चूर हुई भाषाएँ
बिखर गए संवाद
आँखें भी कब तक कर पातीं
अंतर से फरियाद
अधर-सी लिए हैं अब मैंने
पहना मौन लिबास।

किस्मत की रेखाएँ देखो
रहीं बजातीं गाल
धूप, हवा, खुशबू, कलियों के
रहे सिसकते साल
पतझर की पदचापें सुनकर
सपने हुए निराश।

धीरज भी कब तक रख पाएँ
औ’ आशा पालें
ध्यान, मनन का कवच ओढ़ लें
पीड़ा को टालें
अंधकार से जूझ रहा है
देखो यहाँ उजास।


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