अनजाने ही आँसू बहते
इन आँखों से झरझर।
रूप निरखती रही चाँदनी
टूटे से दरपन में
सोच रही है कंपन होता
क्यों सागर के मन में
अधरों पर ठहरे शब्दों की
देह काँपती थरथर।
गरम रेत हो गए गलीचे
जिन पर ओस बिछी थी
चंदा के माथे पर गहरी
चिंतन रेख खिंची थी
अंतर के स्वर मौन हो गए
नीरवता है घर-घर।
पुरवाई ने दुश्मन बन कर
तन में बोए काँटे
आँधी, अंधड़, लू ने मेरे
घर में पर्चे बाँटे
अमलतास के बीत गए दिन
उड़ते सपने फरफर।
शहतूती दिन नीम हो गए
हुई कसैली यादें
संबंधों पर समझौते का
बोझ कहाँ तक लादें
बाधाएँ पग चूम रही हैं
काँप रहा तन जर्जर।
हुए उपेक्षित सगुन सलौने
चंदन वन जलता है
मिसरी धुली हुई बातों से
मानो विष ढलता है
खुशियों का घर ढूँढ़ रही हैं
आज हवाएँ सर-सर।