बाढ़ नहीं
यह तो आँसू है
रोती नदिया का।
नार-खोह सब कटे देह से
घायल तड़प रही,
जल-कटे पर नमक
नगर की बहुएँ छिड़क रहीं,
सुंदर खुद
दिखने को आतुर
फेंक रहीं कचरा,
व्यथा-कथा है, यह तो
दर्द सँजोती नदिया का।
हरी-भरी सी देह कभी
अब सूखी रहती है,
छूटे संगी साथी तट पर
रूठी रहती है,
मिले मेघ का नेह कभी तो
इठला भी जाती,
संस्कार है यह भी
पाँव भिगोती नदिया का।
पाँव पखार लौटती जब तो
नेग दिए जाती,
सूखे मैल मलीन रूप को
दे उर्वर थाती,
रहें सभी सब हरे-भरे हों
करती अभिलाषा,
सृष्टि-वृष्टि हों ‘गोती’
यही मनौती नदिया का।