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कविता

गोरैया जंगल भाग रही

ओम धीरज


गाँव छोड़कर
अब गोरैया
जंगल भाग रही।

बहुत दिनों तक
पली बढ़ी थी
छिटके दानों पर
पीती पानी
आँगन में, या -
बने मचानों पर,
‘पौसारे’ भी
सरकारी हों
जनता माँग रही।

दाना-पानी दूर
उजड़ते खोते
ताखों से
नई बहू
बच्चे बहलाती
नोचे पंखों से,
मुश्किल हुआ
निबाह साथ में
रो-रो जाग रही।

डर है, अब भी
वहाँ चील या
बाज झपट्टे का
किंतु यहाँ तो
रोज उजड़ना
अंडे-बच्चे का,
रिश्तों की
प्राची देहरी को
आज फलाँग रही।


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