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कविता

बह रही यह नदी
ओम धीरज


बह रही, बहती रहेगी
यह नदी देखती तट की
सभी नेकी बदी।

तब कभी गिरते
कगूरे पास के
तरु-विटप या क्षेत्रफल
ले घास के
हो रही आवाज ‘छप’ से या नहीं
बढ़ गए कंपन निजी एहसास के,
इस करुण अनुभूति के आँसू पिए,
बह रही है दर्द
लेकर सरहदी।

पाँव छूकर
अर्चना करके घुसे
अंजुली का
अर्ध्य दे पूरब दिशे
डुबकियाँ ले और निकलें घट भरे
पूजते थे देवि-सा हर पल जिसे
दिन सुहाने वे पुराने याद कर
झुर्रियों में फिर उठी
कुछ गुदगुदी।

हर कदम बंधन बंधे
कब तक जिएँ
कब तलक ये
नील कंठी विष पिए
धमनियाँ दूषित शिराएँ बन गईं
ये विषम हालात किसने हैं दिए
बुदबुदाती, खद्बदाती सोचती
बह रही है झेलती
यह त्रासदी।


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