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कविता

शिखर सेतु के

ओम धीरज


कब तक पूजे जाएँगे
ये शिखर सेतु के।

नींव लगे पत्थर
यदि अपनी
नहीं भूमिका चलते
खंभे अपना
माथ टिकाकर
नहीं पीठिका रखते,
कैसे फिर आकाश चूमते
अधर केतु के।

आम आदमी से
ये पत्थर
सजते नहीं सँवरते
स्पर्धा फेनिल लहरों से
नहीं तनिक भी करते
रहे कहाँ तक
कर्म उपेक्षित
इन अहेतु के।

लहरहीन हो गई
नदी तो
खंभ ताड़ से दिखते
काई-काछ कमेरे बच्चे
अधबूझा-सा लिखते,
यूँ ही
खेले जाएँगे
ये खेल बेतुके।


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