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कविता

आ गए बदलाव के दिन

ओम धीरज


आ गए
बदलाव के दिन।

शीत निष्क्रियता में पले
एक निश्चित काल तक
हल्दियों में देह रंगे
पेट फूले जाँघ तक

है फुदकते
आ गए अब
मेढ़की दुलराव के दिन।

पाँच सालों तक सहे हैं
शीत, वर्षा, घाम जब
नटखटों से, जंतुओं से
है बचाई जान जब

आ गए हैं
आम पर अब
बर्बरी पथराव के दिन।

पर रहे हैं खाद गोबर
और मुफ्ती सींच जो
‘गाजर-घासों’ से उगे हैं
‘गेहुँआ’ के बीच जो

हाथ अवसर
आ गए अब
गंधकी छिड़काव के दिन।


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