आ गए
बदलाव के दिन।
शीत निष्क्रियता में पले
एक निश्चित काल तक
हल्दियों में देह रंगे
पेट फूले जाँघ तक
है फुदकते
आ गए अब
मेढ़की दुलराव के दिन।
पाँच सालों तक सहे हैं
शीत, वर्षा, घाम जब
नटखटों से, जंतुओं से
है बचाई जान जब
आ गए हैं
आम पर अब
बर्बरी पथराव के दिन।
पर रहे हैं खाद गोबर
और मुफ्ती सींच जो
‘गाजर-घासों’ से उगे हैं
‘गेहुँआ’ के बीच जो
हाथ अवसर
आ गए अब
गंधकी छिड़काव के दिन।