यूँ निचोड़ा वक्त ने
तन हुआ
सूखी झील जैसा।
सुबह से शाम तक
बँटते रहे
हर रोज रिश्तों में
कभी इस पर
कभी उस पर हुए हम
खर्च किस्तों में
घर रहा
फरमाइशों की - जिदों की
तहसील जैसा।
लिए ईमान की पोथी
भटकते हम
फिरे दर-दर
मिली हर पाठशाला में
ये पुस्तक
कोर्स से बाहर
मिला अक्सर
दोस्तों का प्यार
‘मिड डे मील’ जैसा।
उगे वन नागफनियों के
जहाँ
बोया गुलाबों को
सजाते
तो कहाँ आखिर
सजाते अपने ख्वाबों को
फूल जैसा प्रश्न
उत्तर
जंग खाई कील जैसा।