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कविता

हौसले

विनय मिश्र


एक अंधापन छुपाकर
आँख वाले बन गए हम।

जीभ से इन दिलजले
घपलों के चूरन चाटिए
दूसरों पर थूकिए मत
अपनी खाँसी रोकिए
हाँ इसी उत्पात के बल पर
बहुत चर्चित हुए हम।

हर कदम पर मौसमों से
छेड़खानी पर है उतरा
ये सफर भी उस गुलामी-सा ही
नामाकूल गुजरा
फिर पुराने पड़ गए हैं
कुछ दिनों होकर नए हम।

हादसों की मार से
स्तब्ध बेदम जो पड़े हैं
लोग कहते हैं यही तो
बेपरों के हौसले हैं
पेट की खातिर हमेशा
पीठ पर रक्खे जुए हम।


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