सुलभ हुए संसाधन
लेकिन जीना हुआ कठिन।
जगे सवेरे, नींद अधूरी
पलकों भरी खुमारी
संध्या लौटे, बिस्तर पकड़ा
फिर कल की तैयारी
भाग-दौड़ में आए होते
जीवन के पलछिन।
रोटी का पर्याय हो गया
कंप्यूटर का माउस
उत्सव का आभास दिलाता
सिगरेट, कॉफी हाऊस
आँखों में उकताहट सपने
टूट रहे अनगिन।
किश्तों में कट गई जिंदगी
रिश्ते हुए अनाम
किश्तों की भरपाई करते
बीती उमर तमाम
गए पखेरू जैसे उड़कर
लौटे नहीं सुदिन।
लहू चूसने पर आमादा
पूँजीवाद घिनौना
जिसके आगे सरकारों का
कद है बिल्कुल बौना
अब जीवन को निगल रहे हैं
अजगर जैसे दिन।