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कविता

समकालीन
अजय पाठक


युगबोधी चतुराई सीखी
समकालीन हुए।

अंधेयुग में काम नहीं
आती है चेतनता
बुद्धिमान हो जाने भर से
काम नहीं चलता

           पढ़े पेट का राम पहाड़ा
           रीढ़विहीन हुए।

अपने कंधे पर नाहक
ईमान नहीं ढोते
अब हम छप्पनभोग दबाकर
देर तलक सोते

            इनकी-उनकी चोरी-चुगली
           में तल्लीन हुए।

दंडकवन की पर्णकुटी में
तपना छोड़ दिया
नैतिकता की रामकहानी
जपना छोड़ दिया

            अवसर आया तो आसन पर
           हम आसीन हुए। 


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