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कविता

इलाहाबाद
अजय पाठक


तन अमृतसर हुआ
मगर मन रहा जहानाबाद।

आँखें परख रहीं चतुराई
चैकस कान हुए
बुद्ध-अंगुलिमाल परस्पर
एक समान हुए
           अब सारा अस्तित्व हो गया
           तहस-नहस बगदाद।

मायामृग से होड़ लगाए
अग्निकुंड से तेज
प्यास अबूझी जलन सहेजे
पानी से परहेज
           जीभ उगलने लगी निरंतर
           जहर भरा अनुवाद।

जीवन के हर कालखंड का
खूब हुआ विस्तार
बाहर नर ही नारायण हैं
भीतर नरसंहार
           लूट-दान सब एक बराबर
                       धर्म ? इलाहाबाद।

अपशकुनी भाषाएँ गढ़कर
लिखते हम अध्याय
चाल-पैंतरे, तिकड़मबाजी
जीवन का पर्याय
           मुँह पर कसें लगाम, मगर हो
           मतलब तब संवाद।


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