हंटर बरसाते दिन
मई और जून के
खुजलाती पीठों पर
कब्जे नाखून के।
जेठ की दुपहरी में
सोचते आषाढ़ की
सूखे की चिंता में
कभी रहे बाढ़ की,
किससे हम दर्द कहें
हाकिम ये दून के।
हाँफ रही गौरया
चोंच नहीं दाना है
इस पर भी मौसम का
गीत इसे गाना है,
भिक्षुक को आते हैं
सपने परचून के।
आचरण नहीं बदले
बस हुए तबादले
जनता के उत्पीड़क
राजा के लाड़ले,
कटे हुए बाल हुए
हम सब सैलून के।
मूर्ति के उपासक ही
मूरत के चोर हुए
बापू के चित्र टाँग
दफ्तर घूसखोर हुए,
नेता के दौरे हैं रोज
हनीमून के।
पैमाइस के झगड़े
फर्जी बैनामे हैं,
सरपंचों की लाठी
और सुलहनामे हैं,
अखबारों पर छींटे
रोज सुबह खून के।