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कविता

है वही विस्मय

यश मालवीय


छुआ कितनी बार तुमको
अनछुआपन है अभी तक
है वही विस्मय
कि जो पहले कभी था
सुना कितनी बार तुमको
अनसुनापन है अभी तक
है वही विस्मय
कि जो पहले कभी था। 

भीगकर भी नहीं भीगे
धार में धँसना
लहर में खेलना यूँ तो हुआ
नींद भर सोई न रातें
चित्र कोई तरल होकर
आँख से अपनी चुआ
गुना कितनी बार तुमको
अनगुनापन है अभी तक
है वही विस्मय
कि जो पहले कभी था। 

हुआ अपने बीच जो भी
अनहुआपन सा लगे क्यों
धूप सच की, बारिशें ही पी गई
अनगिनत सपने, फुहारें
किरन की कोमल उँगलियाँ
जी गई तारीख, फिर-फिर जी गई
जिया कितनी बार तुमको
अनजियापन है अभी तक
है वही विस्मय
कि जो पहले कभी था। 

बैठकर तट पर अकेले
मछलियों की बतकही को
नाव के मस्तूल को देखा किया
थिर हवाओं को हिलाते
खुशबुओं की साँस भरते
अनदिखे से फूल को देखा किया
बुना कितनी बार तुमको
अनबुनापन है अभी तक
है वही विस्मय
कि जो पहले कभी था।        


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